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________________ श्री दशलबणधर्म पूजन मिथ्यातम के जाए बिन, सच्ची सुख शान्ति नहीं होती । सम्यक दर्शन हो जाने पर, फिर पव प्रान्ति नहीं होती । । जयमाला उत्तम क्षमा धर्म को थारु क्रोध कषाय विनाश करूँ पर पदार्थ को इष्ट अनिष्ट न मानें आत्म प्रकाश कसै॥ उत्तम मार्दव धर्म ग्रहण कर विनय स्वरूप विकास करूँ। पर कर्तत्व मान्यता त्यागें अहकार का नाश करूँ ॥२॥ उत्तम आर्जव धर्मधार माया कषाय सहार करूँ। कपट भाव से रहित शुद्ध आतम का सदा विचार करूँ॥३॥ उत्तम शौच धर्म धारण कर लोभ कषाय विनष्ट करूँ शुचिमय चेतन से अशुद्ध ये चार घातिया कर्म हीं III उत्तम सत्य धर्म से निर्मल निज स्वरूप को सत्य करूँ हितमित प्रिय सचबोलूँ नित निज परिणति के सग नृत्य करूँ।।५।। उत्तम सयम धर्म सभी जीवो के प्रति करूणा धारूँ समितिगुप्ति व्रत पालन करके निज आतम गुण विस्तारु।।६।। उत्तम तप धर शुक्ल ध्यान से आठों कों को जारूँ। अन्तरग बहिरग तपों से निज आतम को उजियारूँ।।७।। उत्तम त्याग पाच पापों का सर्वदेश में त्याग करूँ। योग्य पात्र को योग्य दान दे उर मे सहज विराग भरूँ।।८॥ उत्तम आकिंचन रागादिक भावों का परिहार करूँ सर्व परिग्रह से विमुक्त हो मुनिपद अगीकार करूँ ॥९॥ उत्तम ब्रह्मचर्य उर थारूँ आत्म ब्रह्म में लीन रहूँ। कामवाण विध्वंस करूँ मैं शील स्वभावीधीन रहूँ ।।१०।। दशलक्षणवत की महिमा का नित प्रति जयजयगान करूँ । दश धयों का पालन करके महामोक्ष निर्वाण व ॥११॥ *ही श्री उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जब, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य दशम यो पूर्णाय नि स्वाहा ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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