SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - श्री षोडशकारण पूजन शुद्धतक ही परमज्ञान है, शुद्धातम पवित्र दर्शन ।। यही एक चारित्र परम है यही एक निर्मल तप धन ।। इष्ट वियोग अनिष्ट योग उपसर्ग मरण या रोग हो । साधु समाधि भावना अनुपम कभी न दुखमय योग हो ॥९॥ रोगी मुनि की भक्ति पूर्वक सेवा सुश्रुषा करे । भव्य भावना वैयावृत्यकरण मन मजूषा भरे।।१०।। मन वच काया से विजयी हो करे भक्ति अरहन्त की । निर्मल अर्हद भक्ति भावना शुद्ध रूप भगवन्त की।।११।। गुरु निर्गन्थ चरण वन्दन पूजन नित विनय प्रणाम हो ।। नमस्कार आचार्य भक्ति भावना हदय वसु याम हो।।१२।। लोकालोक प्रकाशक जिन श्रुत व्याख्यान अनुरूप हो । बहु भूत भक्तिभावना मन मे उपाध्याय मुनि रूप हो ।।१३।। सप्त तत्व पचास्तिकाय छह द्रव्य आदि सत् जान लें । जिन आगम का पढ़ना प्रवचन भक्ति भावना मान ले ॥१४॥ कार्योत्सर्ग प्रतिक्रमण समता स्वाध्याय वन्दन विमल। देव स्तुतिषट कृत्य भावना आवश्यक निर्मल सरल।।१५।। जिन अभिषेक नृत्य गीतो वाद्यों से पूजन अर्चना । श्रुत प्रवचन मार्गप्रभावना जिनालयो की चर्चना ॥१६॥ शीलवान चारित्रवान जिन मुनियों का आदर करे । मृदुल भावना प्रवचनवत्सल मुनिचरणो मे शिर धरे।।१७।। इनके बाह्म आचरण ही से स्वर्ग सम्पदा झिल मिले । आभ्यन्तर आचरण किया तो मोक्ष लक्ष्मी फल मिले।।१८॥ जितना अश शुद्धि का होगा उतनी आत्म विशुद्धि रे । सतत जाग्रत हो निजात्म मे मुक्ति प्राप्ति की बुद्धि रे ॥१९॥ पूर्ण शुद्धि होगी निजात्म में तब होगा निर्वाण रे । ज्ञानानन्दी गुण अनन्तपय स्वयं सिद्ध भगवान रे॥२०॥ ॐ ह्रीं श्री दर्सनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो पूर्णायं नि स्वाहा ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy