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________________ - जैन पूजांजलि जब तक नहीं स्वसन्मुख है तू तेरा शास्त्र शान भी व्यर्थ । ग्यारह अंग पूर्व नौ तक का अगम ज्ञान सभी है व्यर्थ । । काम भाव से भव दुख को अखंला बढाता ही आया । महाशील के समन प्राप्त करने को देवशरण आया पंचमेरु, ४॥ ॐ ह्री श्री पचमेरु सम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्मेभ्यो पुष्प नि । जग के अनगिनती द्रव्यो को पाकर तृप्त न हो पाया । इसीलिए निलोभ वृत्ति नैवेद्य प्राप्त करने आया ।।पंचमेरु ।।५।। ॐ ह्रीं श्री पचमेरु सम्बन्धि जिनवैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्य नि । अधकार मे मार्ग भूलकर भटक भटक अति दुख पाया। सम्यक्ज्ञान प्रकाश प्राप्त करने को यह दीपक लाया ।। पचमेरु ।।६।। ॐ ही श्री पंचमेरु सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो दीपं नि । विकट जगत जजाल कर्ममय इसको तोड़ नहीं पाया । आत्म ध्यान की ध्यान अग्नि में कर्मजलाने मैं आया पचमेरु।७।। ॐ ही श्री पचमेरू सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्योधूप नि । भव अटवी मे अटका अब तक नहीं धर्म का फल पाया । चिदानद चैतन्य स्वभावी मोक्ष प्राप्त करने आया पचमेरु ।।८।। ॐ ही श्री पचमेरु सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो फल नि । क्षमा शील संयम व्रत तप शुचि विनयसत्य उर मे लाया ।। निज अनतसुख पाने को प्रभु मैं वसुद्रव्य अर्घलाया ।पिचमेरु ॥९॥ ॐ ह्री श्री पचमेरु सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो आर्य नि । जम्बूद्वीप सुमेरु सुदर्शन परम पूज्य अति मन भावन। भू पर भद्रशाल वन, पाँच शतक योजन पर नन्दन वन।। साढे बासठ सहस्त्र योजन ऊँचा है सौमनस सुवन। फिर छत्तीस सहस्त्र योजन की ऊंचाई पर पाडुक वन।। चारो वन की चार दिशा में एक एक जिन चैत्यालय। सोलह चैत्यालय हैं अनुपम विनय सहित बन्दू जय जय ।।१।। ॐ ह्री श्री जम्बूद्वीपसुदर्शनमेरु सम्बन्धि षोडशजिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बम्यो अयं नि स्वाहा । खण्ड धातकी पूर्व दिशा में विजय मेरु पर्वत पावन । धू पर भद्रशाल वन पाँच शतक योजन पर नदन वन ।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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