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________________ श्री सीमेवर पूजन मागम के मभ्यास पूर्वक प्रवाहान चरित्र संवार । निज में ही सकल भाव लाकर अपना रूप निहार ॥ गिरि सुमेरु पर पांडुक बन में रत्नशिला सुविराजित कर । क्षीरोदधि से न्हवन किया प्रम दशदिशा अनुरंजित कर IR॥ ही जन्ममगलमण्डिताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अब नि ।। एक दिवस नभ में देखे बादल क्षणभर में हुए विलीन । बस अनित्य संसार जान वैराग्य भाव में हुए सलीन ।। लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने आकर जय जयकार किया । अतुलित वैभव त्याग आपने वन में जा तप धार लिया ॥३॥ ॐ ही तपोमगल मण्डिताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अब नि । आत्म ध्यानमय शुक्ल ध्यान घर कर्मघातिया नाश किया । सठ कर्म प्रकृतियाँ नाशी केवलज्ञान प्रकाश लिया । समवशरण मे गध कुटी में अन्तरीक्ष प्रभु रहे विराज । मोक्षमार्ग सन्देश दे रहे भव्य प्राणियों को • जिनराज ।।५।। ॐ ही श्री केवलज्ञान मण्डिताय श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अयं नि । जयमाला शाश्वत विद्यमान तीर्थकर सीमन्धर प्रभु दया निधान । दे उपदेश भव्य जीवों को करते सदा आप कल्याण ॥१॥ कोटि पूर्व की आयु पाँच सौ धनुष स्वर्ण सम काया है। सकल ज्ञेय ज्ञाता होकर भी निज स्वरुप ही भाया है ॥२॥ देव तुम्हारे दर्शन पाकर जागा है उर मे उल्लास । चरण कमल में नाथ शरण दो सुनो प्रभो मेरा इतिहास ॥३॥ मैं अनादि से था निगोद में प्रति पल जन्म मरण पाया । अग्नि, भूमि, जल, वायु, वनस्पति कायक थावर तन पाया ॥४॥ दो इन्दिय स हुआ भाग्य से पार न कष्टों कर पाया । जन्म तीन इन्द्रिय भी धारा दुख का अन्त नहीं आया ॥५॥ चौ इन्द्रियधारी बनकर मैं विकलत्रय में भरमाया । पंचेन्द्रिय पश सैनी और असैनी हो बहु दुख पाया ।।६।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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