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________________ २११ श्री चपापुर निर्वाण क्षेत्र पूजन सर्व विभाव भिन्न भासित होते ही प्रगटा सहज स्वरुप । गुरु अनन्त का पिंड आत्मा है आनन्द अमेद स्वरुप ।। मैं सम्यक्त्व ग्रहण कर प्रभु कब तेरह विधि चारित्र धरूँ। पच महाव्रत धार साधु बन इस भू पर निर्भय विचरूँ ॥२३॥ सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र तप आराधना चार चितधार । शुद्ध आत्मा अनुभव से नित प्रति हो स्वरुप साधना अपार ॥२४॥ नित द्वादश भावना चिन्तवन करके दृढ वैराग्य धरूँ। भेदज्ञान कर पर परणति तज निज परणति मे रमण करूँ ॥२५।। इसी क्षेत्र से महामोक्ष फल सिद्ध स्वपद को मैं पाऊँ । अष्ट कर्म को नष्ट करूं मैं परम शुद्ध प्रभु बन जाऊँ ॥२६॥ मन वच काया शुद्धि पूर्वक भाव सहित की है पूजन । यह ससार भ्रमण मिट जाए हे प्रभु! पाऊँ मुक्ति गगन ॥२७।। ऊही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो पूर्णार्य नि स्वाहा । श्री सम्मेदशिखर का दर्शन पूजन जो मन करते है । मुक्तिकन्त भगवत सिद्ध बन भवसागर से तरते है ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र-ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो नम । श्री चंपापुर निर्वाण क्षेत्र पूजन वासुपूज्य तीर्थंकर की निर्वाण भूमि चम्पापुर धाम । शुद्ध ह्रदय से बदन कर प्रभु चरणाम्बुज मे करूँ प्रणाम ।। जय थल नभ मे वासुपूज्य प्रभु का ही गुज रहा जयगान । जल फलादि वसु द्रव्य सजाकर पूजन करता हूँ भगवान ।। ॐ ह्रीं श्री चपापुर तीर्थक्षेत्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अब मम सनिहितों भव भव वषट् । पावन समता रस नीर चरणो मे लाया । मिथ्यात्व पाप का नाश करने में आया । । चपापुर क्षेत्र महान दर्शन सुखकारी । जय वासुपूज्य भगवान प्रभु मंगलकारी ॥१॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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