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________________ २७८ जैन पूर्जाजलि जिनके मन में अभिलाषा है होती उनको सिद्धि नही । अभिलाषा वाले को होती शुद्ध भाव की बुद्धि नहीं । । ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनायदीप नि । अष्ट कर्म की क्रूर प्रकृतियों में ही निज को उलझाया । परम पारिणामिक स्वभाव की सजल धूप पाने आया ।।अष्टा ।।७।। ॐ ह्रीं तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो अष्ट कर्म दहनाय धूपं नि । मोक्ष प्राप्ति के बिना आज तक सुख का एक न कण पाया । परम पारिणामिक स्वभाव के शिवमय फल पाने आया ॥अष्टा ॥८॥ ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फल नि । शुद्ध त्रिकाली अपना ज्ञायक आत्म स्वभाव न दर्शाया । परम पारिणामिक स्वभाव से पद अनर्घ पाने आया । ।अष्टा ।।९।। ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्य नि । जयमाला श्री चौबीस जिनेश को वन्दन करूँत्रिकाल । तीर्थकर निर्वाण भू हरे कर्म जजाल ।।१।। अष्टापद कैलाश आदिप्रभु ऋषभदेव पद करूँ प्रणाम । चम्पापुर मे वासुपूज्य जिनवर के पद बन्दू अभिराम ।।२।। उजयन्त गिरनार शिखर पर नेमिनाथ पद मे वन्दन । पावापुर मे वर्धमान प्रभु के चरणों को करूं नमन ॥३॥ बीस तीर्थकर सम्मेदाचल के पर्वत पर वन्दू । बीस टोक पर बीस जिनेश्वर सिद्ध भूमि को अभिनन्दू ।।४।। कूटसिद्धवर अजितनाथ के चरण कमल को नमन करूँ। धवलकूट पर सम्भवजिन पद पूर्जे निज का मनन करूँ।।५।। मैं आनन्दकूट पर अभिनन्दन स्वामी को करूं नमन । अविचलकट समति जिनवर के पद कमलो मे है वदन ॥६॥ मोहनकूट प्रदम प्रभु के चरणो मे सादर करूँ नमन । कूट प्रभास सुपाश्र्वनाथ प्रभु के मैं पूर्जे भव्य चरण।७।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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