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________________ २७२ जैन पूजाजलि निज में ही सन्तुष्ट रहू मैं निज में ही रमण करु । फिर क्यो चारों गति में भटकू फिर क्यों भव में भ्रमण करु ।। अन्तर्यामी सर्वज्ञ हुए तुम वीतराग अरहन्त हुए । सुरनरमुनि इन्द्रादिक बन्दित त्रैलोक्यनाथ भगवत हुए।।३१।। विपुलाचल पर दिव्यध्वनि के द्वारा जग कोउपदेशदिया । जग की असारता बतलाकर फिर मोक्षमार्ग सदेशदिया ।।३२।। ग्यारह गणधर मे हेस्वामी। श्रीगौतम गणधर प्रमुखहुए । आर्यिका मुख्य चदना सती श्रोता श्रेणिक नृप प्रमुखहुए।।३३।। सोई मानवता जागउठी सुर नर पशु सबका ह्रदयखिला । उपदेशामृत के प्यासो को प्रभु निर्मल सम्यक ज्ञानमिला ।।३४।। निज आत्मतत्व के आश्रय से निजसिद्धस्वपदमिल जाता है । तत्त्वो के सम्यक निर्णय से निज आत्मबोध हो जाता है ।।३५।। यह अनतानुबधी कषाय निज पर विवेक से जाती है । बस भेदज्ञान के द्वारा ही रत्नत्रय निधि मिल जाती है ॥३६॥ इस भरतक्षेत मे विचरण कर जगजीवो का कल्याण किया । दर्शन ज्ञान चारित्रमयी रत्नत्रय पथ अभियान किया ।।३७।। तुम तीस वर्ष तक कर विहार पावापुर उपवन मे आये । फिर योग निरोध किया तुमने निर्वाण गीत सबनेगाये ॥३८॥ चारो अघातिया नष्ट हुए परिपूर्ण शुद्धता प्राप्त हुई । जा पहुचे सिद्धशिलापर तुम दीपावली जग विख्यात हुई ॥३९।। हे महावीर स्वामी! अब तो मेरा दुख से उद्धार करो ।। भवसागर में डूबा हूँ मैं हे प्रभु। इस भव का भार हरो ।।४०।। हे देव। तुम्हारे दर्शनकर निजरुप आज पहिचाना है। कल्याण स्वय से ही होगा यह वस्तुतत्व भी जाना है ।।४१।। निज पर विवेक जागा उरमे समकित की महिमा आई है। यह परम वीतरागी मुद्रा प्रभु मन में आज सुहाई है ।।४२।। तुमने जो सम्यक पथ सबको बतलाया उसको आचरल ।। आत्मानुभूति के द्वार मैं शाश्वत सिद्धत्व प्राप्तकरवू ।।४।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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