SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५३ श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनपूजन शौर्य प्रदर्शन करना है तो क्रोष त्याग कर हो जा शात । विनय भाव से मान विजय कर ऋजुता से माया कर ध्वात ।। समवशरण में नाथ आपकी खिरी दिव्य ध्वनि कल्याणी । द्रव्यदृष्टि ही ज्ञानी हैं, पर्याय दृष्टि है अज्ञानी ।।४।। गुण पर्यायो सहित द्रव्य है लक्षण जिसका शाश्वत सत् । द्रव्य ध्रौव्य उत्पाद व्यय सहित है स्वतत्र सत्ता निश्चित।५।। द्रव्य स्वतत्र सदा अपने मे कोई लेश नहीं परतत्र । गुण स्वतन्त्र प्रत्येक द्रव्य के पर्यायें भी सदा स्वतत्र ।।६।। कोई नहीं परिणमाता, परिणमन शील है द्रव्य स्वय । पर परिणमन कराने का जो भाव वही मिथ्यात्व स्वय ।।७।। अपनी अपनी मर्यादा, स्वचतुष्टय मे है द्रव्य सभी । सदा परिणमित होते रहते बिना परिणमन नहीं कभी ॥८॥ जीव द्रव्य तो है अनन्त अरु पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त ।। धर्म अधर्म आकाश एक इक, काल असख्य स्वमहिमावत ।।९॥ है परिपूर्ण छहो द्रव्यो से पुरालोक अनादि अनत । जो स्वद्रव्य का आश्रय लेता वही जीव होता भगवत ।।१०।। जीव समास मार्गणा चौदह चौदह गुणस्थान जानो । यह व्यवहार, जीव की सत्ता निश्चय से अतीत मानो ॥११॥ सभी जीव द्रव्यार्थिकनय से मदाशुद्ध है सिद्धसमान । पर्यायर्थिकनय से देखो तो है जग जीव अशुद्ध महान ।।१२।। आत्म द्रव्य है परमशुद्ध त्रैकालिक ध्रुव अनतगुणवान । दर्शन ज्ञानवीर्य सुखगुण से पूरित है त्रिकाल भगवान ।।१३।। जो पर्यायो मे उलझा है वही जीव है मूढअजान । द्रव्यदृष्टि ही निजस्वद्रव्य का आश्रय ले होता भगवान ।।१४।। अब तक प्रभु पर्यायदृष्टि रह मैंने जग मे दुख पाया । द्रव्यदृष्टि बनने का स्वामी अब अपूर्व अवसर आया ।।१५।। यह अवसर यदि चूका तो प्रभु पुन जगत मे भटकूगा । भवसागर की भवरो में ही दुख पाा अटका ॥१६॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy