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________________ २५० जैन पूजाजलि सभी जीव हों सुखी जगत के सभी निरोगी हो सानन्द । सबका हो कल्याण पूर्णत सब ही पाएं पर मानन्द ।। मल्लिनाथपद कलशचिन्ह लख चरणकमल जो ले उरधार । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते हैं भव पार ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र - ॐ ही श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नम । श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनपूजन हे मुनिसुव्रत भगवान तुमने कर्म घाति स्वय हने । कैवल्यज्ञान प्रकाशकर पाया परम पद आपने ।। निज पर विवेक जगा हृदय मे पूर्ण शुद्धात्मा बने । ससार को सन्मार्ग दिखला सिद्ध परमात्मा बने ।। भव सिंधु की मझधार मे डूबा मुझे तारो प्रभो । दो भेद ज्ञान प्रकाश मुझको शीघ्र उद्धारो प्रभो ।। ॐही श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट्, ॐ ही मुनिसुव्रतनाथ जिनेंद्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेंद्र अत्र मम सनिहितो भव भव वषट् । अब आत्म जल की सलिल धारा शुद्ध अन्तर मे धः । यह जन्म मरण अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ।। मै मुनिसुवत भगवान का पूजन करूँ अर्चन करूँ। निज आत्मा मे आपके ही रूप का दर्शन करूँ ॥१।। ॐ ही श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि अब आत्म चन्दन दुख निक्दन शुद्ध अन्तर मे धरूँ। भव भ्रमण ताप अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ मै मुनि ॥२॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । अब आत्म अक्षत धवल उज्ज्वल शुद्ध अन्तर मे धरूँ। अक्षय अनत स्वरूप पाकर स्वपद अजरामर वरूँ ।। मै मुनि ॥३॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि अब आत्म पुष्प सुवासशिवमय शुद्ध अन्तर मे धरूँ। दुष्काम हर निष्काम बनकर स्वपद अजरामर वर्क में मुनि ॥४।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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