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________________ - २४४ जैन पूजाजलि ध्रुव की महिमा जाग्रत हो तो धुव धाम दृष्टि में आता है । ध्रुव की धुन होते ही प्रचड यह जीव सिद्ध पद पाता है । । एक चार वसुयोजन स्वर्णकलश इकसहस्त्र आठ लाए । क्षीरोदधि सागर के जल से इन्द्र नव्हन कर हर्षाए ।२।। ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय मगसिर शुक्ल चतुय्था जन्म कल्याण प्राप्ताय अयं नि । मगसिर शुक्ला दशमी के दिन तप कल्याण हुआ अनुपम । लौकातिक देवो ने आ प्रभु का वैराग्य किया दृढतम ।। चक्रवर्ति पद त्याग श्री अरनाथ स्वय दीक्षा धारी । सब सिद्धों को वन्दन करके मौन तपस्या स्वीकारी ॥३॥ ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय मगसिर शुक्लादश्या तप कल्याणक प्राप्ताय अयं नि । कार्तिक शुक्ल द्वादशी प्रभु ने केवलज्ञान लब्धि पाई। छयालीस गुण सहित पूज्य अरहत स्वपदवी प्रगटाई ।। समवशरण की ऋद्धि हुई तीर्थकर प्रकृति उदय आई । अष्ट प्रातिहार्यों की छवि लख जग ने प्रभु महिमा गाई ॥४॥ ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय कार्तिकशुक्लद्वादश्या ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अयं नि । चैत्र मास की कृष्ण अमावस्या को योग अभाव किया । अष्ट कर्म से रहित अवस्था पा निज पूर्ण स्वभाव लिया ।। नाटक कूट शैल सम्मेदाचल से पद निर्वाण लिया । इन्द्रादिक ने श्री अरजिन का भव्य मोक्ष कल्याण किया ।।५।। ॐ ह्री श्री आनाथ जिनेन्द्राय चैत्र कृष्ण अमावस्याया मोक्षकल्याण प्राप्ताय अयं नि । जयमाला अष्टादशम तीर्थकर प्रभु अरहनाथ को करूं नमन ।। सप्तम चक्री कामदेव चौदहवे अधिपति को वन्दन।।१।। मेघ विलय लख तुमको स्वामी पलभर मे वैराग्य हुआ । गए सहेतुक वन मे प्रभुवर दीक्षा से अनुराग हुआ।२।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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