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________________ २४० - - जैन पूजाजलि तेज पुज शुद्धातम तस्व जब निज अनुभव में होता मस्त । नय प्रमाण निक्षेप आदि का भी समूह हो जाता अस्त ।। सर्व प्रथम इन्द्राणी ने दर्शन कर जीवन धन्य किया । पाडुकशिला विगजित कर सुरपति ने प्रभु अभिषेक किया ॥२॥ ॐ ह्री श्री बैशाख शुक्ला प्रतिपदाया जन्ममगल प्राप्ताय श्री कुंथुनाथ जिनेंद्राय अयं नि शुभ बैशाख शुक्ल एकम को उरछाया वैराग्य अपार । यह ससार अनित्य जानकर जिनदीक्षा का किया विचार।। तिलक वृक्ष के नीचे दीक्षा लेकर धार लिया निजध्यान । कुन्थुनाथ प्रभु का तप कल्याणक इन्द्रो ने किया महान ।।३।। ॐ ह्री श्री बैशाख शुक्ला प्रतिपदाया तपोमगलप्राप्ताय श्रीकुथुनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य नि। मोह नाशकर चैत्र शुक्ल तृतीया को पाया केवलज्ञान । समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान ।। खिरी दिव्यध्वनि जगजीवो को आपने किया ज्ञानप्रदान । कन्थनाथ ने मोक्ष मार्ग दर्शाकर किया विश्व कल्याण ।।४।। ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्लातृतीया ज्ञानमगल प्राप्ताय श्री कुथनाथ जिनेद्राय अर्घ्य नि । श्री सम्मेदशिखर पर आकर प्रतिमा योग किया धारण । अन्तिम शुक्लध्यान को धर कर स्वामीहुए तरण तारण ।। प्रभु बैशाख शुक्ल एकम को शेष कर्म का कर अवसान । कूट ज्ञानधर से है पाया कुथुनाथ प्रभु ने निर्वाण।।५।। ॐ ही श्री बैशाख शुक्ल प्रतिपदाया मोक्षमगलप्राप्ताय श्री कुथुनाथ जिनेन्द्राय अध्य नि जयमाला कु थुनाथ करुणा के सागर करणादानी कृपा निधान । कुमति निकन्दन कल्मष भजन को छेदी कृती महान ॥१।। षष्टम् चक्की दीना नाथ दया के सागर दया निधान। भरत क्षेत्र के षटखण्डो पर राज्य किया बहुतकाल बीता ।।२।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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