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________________ २३८ जैन पूजाजलि दृषि ज्ञप्ति वृत्तिमय जीवन हो शुखातम तत्व में हो प्रवृत्ति । परिणाम शुद्ध हो अन्तर मैं पर परिणामों से हो निवृत्ति ।। पाप ताप सताप नष्ट हो जाये सिद्ध स्वपद पाऊँ । पूर्ण शातिमयशिव सुखपाकर फिर न लौट भव मे आऊँ ॥१८॥ ॐ ह्रीं श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायं नि । चरणो मे मृग चिन्ह सुशोभित शाति जिनेश्वर का पूजन । भक्ति भाव से जो करते हैं वे पाते है मुक्ति गगन।। इत्याशीर्वाद जाप्यपत्र - ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेद्राय नम । श्री कुन्थुनाथ जिनपूजन श्री कुथुनाथ जिनेश प्रभु तुम ज्ञान मूर्ति महान हो । अग्हन्त हो भगवत हो गुणवत हो भगवान हो ।। तुम वीतरागी तीर्थकर हितकर सर्वज्ञ हो । जानते युगपत सकल जग इसलिए विश्वज्ञ हो । नाथ में आया शरण मे राग द्वष विनाश हो । दो मुझे आशीष उर मे पूर्ण ज्ञान प्रकाश हो ।। ॐ ह्री श्री कुथुनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर मवौष्ट् ॐ ह्री श्री कुथुनाथ जिनेद्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ही श्री कुथुनाथ जिनेद्र अत्र मम सनिहितो भव भव वषट नव तत्व के श्रद्धान का जल स्वच्छ अन्नर मे भरूं। समवाय पाचो प्राप्त कर मिथ्यात्व के मल को हरूँ ।। श्री कुन्थुनाथ अनाथ रक्षक पद कमल मस्तक धरूँ । आनद कन्द जिनेन्द्र के पद पूज सब कल्मष हरूँ ।।१।। ॐ ह्री श्री कु थनाथ जिनेद्राय जन्मजरामत्यु विनाशनाय जल नि । है सार जग मे आत्मा निज तत्व चदन आदरूँ। प्रभुशात मुद्रा निरखकर मिथ्यात्व के मल को हरूँ ।। श्री कुन्थु ।।२।। ॐ ह्री श्री कु थुनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । मैं जान तत्त्व अजीव को अक्षत स्वचेतन पद धरूँ। अक्षय अरूपी ज्ञान से मिथ्यात्त्व के पल को हरूँ ॥ श्री कुन्थु ॥३॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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