SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीन घातिया का योगी रहता पहिला शक्ल वितर्क विद्या श्री धर्मनाथ जिन पूजन २३३ सौ सौ बार नमन कर निज को निज के ही भीतर जारे । मिट जाएगे पलक मारते ही पव भ्रम के अधियारे ।। श्रुतवीचार सक्रमण होना ध्यान पृथक्त्व वितर्क विचार । मोहनीय घातिया विनाशक पहिला शुक्लध्यान सुखकार ।।२४।। एक योग मे योगी रहता वह एकत्व वितर्क अविचार । तीन घातिया का नाश करे जो दूजा शुक्ल ध्यान शिवकार ।।२५।। अष्टम से लेकर बारहवे गुणस्थान तक ये होते । त्रेसठ कर्म प्रक्रति क्षय होती तब अरहन्त देव होते।।२६।। कायक्रिया जब सूक्ष्म रहे तब होता सूक्ष्मक्रि याप्रतिपाति ।। तेरहवे मे होता जब अन्तमुहूर्त आयु रहती ॥२७।। योग अभाव अधातिकर्म क्षय करता व्युपरत क्रिया निवति । चौदहवे मे लघु पचाक्षर समय मात्र इसकी स्थिति ॥२८॥ चौदहवे के प्रथम समय में प्रकृति बहात्तर का होनाश । अन्न समय मे तेरह कर्म प्रकृति का होता पूर्ण विनाश।।२९।। ऊर्ध्व गमन कर सिद्धशिला पर सिद्ध स्वपद पाते भगवन्त । हो लोकाग्र भाग मे सुस्थित शुद्ध निरजन सादि अनत ||३०।। धर्मध्यान को सर्व परिग्रह तजकर जो जन ध्याते हैं । स्वर्गादिक सर्वार्थसिद्धि को सहज योगि जन पाते है।।३१।। क्षपकश्रेणि चढ शुक्ल ध्यान जो ध्याते पाते केवलज्ञान । अतिम शुक्ल ध्यान के द्वारा वे ही पाते है निर्वाण ||३२।। आर्त रौद्र मे कृष्ण, नील, कापोत अशुभ लेश्या होती । धर्मध्यान मे पीत, या अरु शुक्ल लेश्या ही होती ।।३३।। पहिले दूजे शुक्लध्यान मे शुक्ल लेश्या ही होती । तीजे चौथे शक्लध्यान में परम शुक्ल लेश्या होती ॥३४।। चार ध्यान को जानूं समझू अप्रशस्त का त्याग करूँ। आलबन लेकर प्रशस्त का रागातीत विराग वरूँ ।।३५।। रहित, परिग्रह, तत्वज्ञान, परिषहजय, साम्यभाव, वैराग्य । धर्म ध्यान के पाँचो कारण निज मे पाऊँ जागेभाग्य।।३६।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy