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________________ श्री धर्मनाथ जिन पूजन २२९ तीर्थ यात्रा जप तप करना मात्र नग्नता धर्म नही । वीतराग निज धर्म प्रगट होते ही रहता कर्म नही ।। धर्म भावना का जल लेकर क्षमाधर्म उर लाऊँ । जन्मरोग का नाशकरूँ मै आत्म ध्यान चित लाऊँ ।। धर्म धुरन्धर धर्मनाथ प्रभु धर्म चक्र के धारी । हे धर्मेश धर्म तीर्थकर शुद्ध धर्म अवतारी ॥१॥ ॐ ह्री श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । धर्म भावना का चन्दन ले धर्म मार्दव ध्याऊँ । भव भव की पीडा नाशें आत्म धर्म गुण गाऊँ ॥धर्म धुर ।।२।। ॐ ही श्री धर्मनाथ जिनेद्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि ।। धर्म भावना के अक्षत ले धर्म आर्जव ध्याऊँ। निज अखडपद प्राप्तकरूँमै आत्मधर्म चित लाऊँ ।। धर्म धुरधर ॥३॥ ॐ ही श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । धर्म भावना पुष्प सजोऊँ सत्य धर्म मन भाऊँ । कामवाण की शल्य मिटाऊँआत्म धर्मगुण गाऊँ ।।धर्म धुरधर ॥४।। 3. ही श्री धर्मनाथ जिनेद्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । धर्म भावना के चरू लाऊ शौच धर्म उर लाऊँ। क्षुधा रोग का नाश करूँ मै आत्म धर्म चितलाऊँ ।।धर्म धुरधर ।।५।। ॐ हो श्री धर्मनाथ जिनेद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । धर्म भावना दीप जलाऊँ सयम धर्म जगाऊँ। मोह तिमिर अज्ञान हटाऊँ आत्म धर्म गुण गाऊँ ।। धर्म धुरधर ।।६।। ॐ ही श्री धर्मनाथ जिनेद्राय मोहाधकार विनाशनाय दीप नि । धर्म भावना धूप चढाऊँ मै तप धर्म बढाऊँ । अष्टकर्म निर्जरा करूँमै आत्म धर्म चित लाऊँ ।। धर्म धुरधर।।७।। ॐ ह्री श्री धर्मनाथ जिनेद्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । धर्म भावना का फल पाऊँ त्याग धर्म मन लाऊँ । मोक्षस्वपद की प्राप्ति करूँमै आत्मधर्म गुण गाऊँ ।। धर्म धुरधर।।८।। ॐ ह्री श्री धर्मनाथ जिनेनद्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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