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________________ श्री अनन्तनाथ जिन पूजन २२७ वस्तु स्वभाव यथार्थ जानने का जब तक पुरुषार्थ नही । भाव भासना बिन तत्वों की श्रद्धा भी सत्यार्थ नहीं ।। मूल प्रकृतियाँ कर्म आठ ज्ञानावरणादिक होती है । उत्तर प्रकृति एक सौ अडतालीस कर्म की होती है ॥११॥ गुणस्थान मिथ्यात्व प्रथम मे एक शतक सत्रह का बध ।। दूजे सासादन मे होता एक शतक एक का बन्ध ।।१२।। मिश्र तीसरे गुणस्थान में प्रकृति चौहत्तर का हो बन्ध । चौथे अविरति गुस्थान मे प्रकृति सतत्तर का हो बन्ध।।१३।। पचम देशविरति मे होता उनसठ कर्म प्रकृति का बन्ध । गुणस्थान षष्टम् प्रमत्त मे त्रेसठ कर्म प्रकृति का बन्ध ।।१४।। सप्तम् अप्रमत्त मे होता उनसठ कर्म प्रकृति का बन्ध । अष्ट अपूर्वकरण मे हो 'अट्ठावन कर्म प्रकृति का बन्ध।।१५।। नौ मे अनिवृत्तिकरण मे होता है बाईस प्रकृति का बन्ध । दमवे सूक्ष्मसाम्पराय मे सत्ररह कर्म प्रकृति का बन्ध ।।१६।। ग्यारहवे उपशातमोह मे एक प्रकृति माता का बन्ध । क्षीणमोह बारहवे मे है एक प्रकृति साता का बन्ध ।।१७।। है सयोग केवली त्रयोदश एक प्रकृति माता का बन्ध । है अयोग केवली चतुर्दश किसीप्रकृति का कोई न बन्ध ।।१८।। अष्टम गुणस्थान से उपशम क्षपक श्रेणी होती प्रारम्भ । उपशम तो, दस, ग्यारहतक है नवदस बारह क्षायक रम्य ।।१९।। अविरत गुणस्थान चोथे मे होता सात प्रकृति का क्षय । पचम षष्टम् सप्तम मे होता है तीन प्रकृति का क्षय।।२०।। नवमे गुणस्थान में होती है छत्तीस प्रकृति का क्षय । दसवे गुणस्थान मे होता केवल एक प्रकृति का क्षय।।२१।। क्षीणमोह बारहवे मे हो सोलह कर्म प्रकृति का क्षय । इस प्रकार चौथे से बारहवे तक सठ प्रकृति विलय ।।२२।। गुणस्थान तेरहवे मे सर्व अनन्त चतुष्टयवान । जीवन मुक्त परम औदारिक सकल ज्ञेय ज्ञायक भगवान ॥२३॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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