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________________ श्री अनन्तनाथ जिन पूजन शुद्ध आत्म अनुभव होते ही द्वैत नहीं भासित होता । चिन्मय एकाकार एक चिन्मात्र रुप दर्शित होता । । ॐ ही श्री अनन्तनाथ जिनेद्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । भाव शुभाशुभ दुख के कारण इनसे कभी न सुख पाया । सवर सहित निर्जरा द्वारा मोक्ष सुफल पाने आया ।।जय ॥८॥ ॐ ह्री श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । देह भोग ससार राग मे रहा विराग नही भाया । सिद्ध शिला सिंहासन पाने अर्घ सुमन लेकर आया ।जय ॥९॥ ॐ ह्री श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय अनर्घपद प्राप्ताय अयं नि । श्री पंच कल्याणक कार्तिक कृष्णा एकम् के दिन हुआ गर्भ कल्याण महान । माता जय श्यामा उर आये पुष्पोत्तर का त्याग विमान । नव बारह योजन की नगरी रची अयोध्या श्रेष्ठ महान । जय अनन्त प्रभु मणि वर्षा की पन्द्रह मास सुरो ने आन ॥१॥ ॐ ह्री श्री कार्तिककृष्ण प्रतिप्रदाया गर्भकल्याण प्राप्ताय श्रीअनतनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । नगर अयोध्या सिंहसेन नृप के गृह गूजी शहनाई। ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश को जन्मे सारी जगती हर्षायी ।। ऐरावत पर गिरि सुमेरु ले जा सुरपति नेन्हवन किया । जय अनन्त प्रभु सुर मुरागनाओ ने मगल नृत्य किया ।।२।। ॐ ही श्री ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश्या जन्मकल्याण प्राप्ताय श्रीअनन्तनाथ जिनेन्द्राय अयं नि उल्कापात देखकर तुमको एक दिवस वैराग्य हुआ । ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश को स्वामी राज्यपाट का त्याग हुआ । गये सहेतुक वन मे तरु अश्वस्थ निकट दीक्षा धारी । जय अनन्तप्रभु नग्न दिगम्बर वीतराग मुद्रा धारी ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री ज्येष्ठ कृष्णद्वादश्या तपकल्याण प्राप्ताय श्रीअनन्तनाथ जिनेन्द्राय अयं
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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