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________________ - श्री विमलनाथ जिन पूजन २२१ ज्ञानी जड स्वरुप को अपना कभी मानता नहीं त्रिकाल । अज्ञानी तन से ममत्व कर पाता है पव कष्ट विशाल । । ॐ हीं माघ शुक्ल चतुथ्यां जन्म मंगल प्राप्ताय श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । माघ मास की शुक्ल चतुर्थी उरवैराग्य जगा अनुपम । लौकातिक सुर साधु साधु कह प्रभुविराग करते दृढतम ॥ जम्बू वृक्षतले वस्त्राभूषण का त्याग किया सुखतम । जय जय विमलनाथ प्रभुतप कल्याण हुआ जगमे अनुपम ॥३॥ ॐ ह्री माघ शुक्ल चतुर्थ्यां तपो मगल प्राप्ताय श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि तीनवर्ष छदमस्थ रहै प्रभु पाया पावन केवल ज्ञान। माघ शुक्ल षष्ठम को मगल उत्सव जग मे हुआ महान ।। समवशरण मे वस्तु तत्व का हुआ परम सुन्दर उपदेश।। जय जय विमलनाथ तीर्थकर जय जय त्रयोदशमतीर्थेश।।४॥ ॐ ह्री माघ शुक्ल षष्ठया ज्ञान कल्याणा प्राप्ताय श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि शुभ अषाढ शुक्ल अष्टम को चउ अघातिया करके नाश। . गिरि सम्मेदशिखर सुवीरकुल कूट हुआ निर्वाण प्रकाश।। ऊर्ध्वलोक मे गमन किया प्रभु पाया सिद्धलोक आवास । जय जय विमलनाथ तीर्थकर हुआ मोक्षकल्याणक रास।।५।। ॐ ही अषाढ शुक्ल अष्ट्या मोक्ष मगल प्राप्ताय श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि जयमाला विमलनाथ विमलेश विमलप्रभ विमलविवेक विमुक्तात्मा । विचारज्ञ विद्यासागर विद्यापति विविक्त विद्यात्मा ॥१॥ तेरहवे तीर्थकर प्रभु त्रैलोक्यनाथ जिनवर स्वामी । तेरहविधि चारित्र बताया तुमने हे शिव सुख धामी ।।२।। पचपन गणधर से शोभित प्रभु मुख्य हुए मदिर गणधर । मुख्य आर्यिका पद्मा, श्रोता पुरुषोत्तम, सुरनर मुनिवर ॥३॥ पचमहावत पचसमिति त्रय गुप्ति श्रमण मुनिकाचारित । है व्यवहार चारित्र श्रेष्ठनिश्चय स्वरूप आचरण पवित्र ॥४॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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