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________________ २१८ जैन पूजाजलि निज का अभिनन्दन करते ही मिथ्यात्व मूल से हिलता है । निज प्रभु का वदन करते ही आनद अतीन्द्रिय मिलता है । । अष्ट वर्ष की अल्प आयु मे तुमने अणुव्रत धार लिया । यौवन वय मे ब्रह्मचर्य आजीवन अगीकार किया ।।३।। पच मुष्टि कचलोच किया सब वस्त्राभूषण त्याग दिये । विमल भावना द्वादश भाई पच महाव्रत ग्रहण किये।।४।। स्वय बुद्ध हो नम सिद्ध कह पावन सयम अपनाया । पति, श्रुति, अवधि जन्म से था अब ज्ञान मन पर्यय पाया ।।५।। एक वर्ष छास्थ मौन रह आत्म साधना की तुमने । उग्र तपस्या के द्वारा ही कर्म निर्जरा की तुमने ।।६।। श्रेणीक्षपक चढे तुम स्वामी मोहनीय का नाश किया । पूर्ण अनन्त चतुष्टय पाया पद अरहत महान लिया ।।७।। विचरण करके देश देश मे मोक्ष मार्ग उपदेश दिया । जो स्वभाव का साधन साधे, सिद्ध बने, सदेश दिया ।।८।। प्रभु के छयासठ गणधर जिनमे प्रमुख श्रीमदिर ऋषिवर । मुख्य आर्यिका वरसेना थी नृपति स्वयभू श्रोतावर ।।९।। प्रायश्चित व्युत्सर्ग, विनय, वैरुयावृत्त स्वाध्याय अरुध्यान । अन्तरग तप छह प्रकार का तुमने बतलाया भगवान ।।१०।। कहा वाह्य तप छ प्रकार उनोदर कायक्लेश अनशन । रस परित्यागसुव्रत परिसख्या, विविक्त शय्यासन पावन ।।११।। ये द्वादश तप जिन मुनियो को पालन करना बतलाया । अणुव्रत शिक्षाप्रत गुणवत द्वादशवत श्रावक का गाया ।।१२।। चम्पापुर मे हुए पचकल्याण आपके मगलमय । गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष, कल्याण भव्यजन को सुखमया।१३।। परमपूज्य चम्पापुर की पावन भू को शत्-शत् वन्दन।। वर्तमान चौबीसी के द्वादशम् जिनेश्वर नित्य नमन ।।१४।। मैं अनादि से दुखी, मुझे भी निज बल दो भववास हरूँ। निज स्वरूप का अवलम्बन ले अष्टकर्म अरि नाश करूँ।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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