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________________ - श्री पुष्पदन्त जिनपूजन गमन मण्डल में उसका तीन लोक के तीर्थ क्षेत्र बंदन करमाऊं।।. समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान । खिरी दिव्य ध्वनि जनकल्याणी जय जय पुष्पदंत भगवान I४॥ ॐ ही कार्तिक शुक्लादितियायां ज्ञानमंगल प्राप्तापपुष्पदंतजिनेन्द्राय अयं नि भादों शुक्ल अष्टमी के दिन सम्मेदाचल पर जयगान । शेष प्रकृति पच्चासी को हर सुप्रभ कूट लिया निर्वाण ।। सिद्धशिला लोकाग्रशिखर पर आप विराजे हे गुणधाम । महामोक्ष मगल के स्वामी पुष्पदत को कर प्रणाम ॥५॥ ॐ हीं माद्रशुक्लअष्टम्या मोक्षमगलाप्ताय पुष्पदन्त जिनेन्द्राय अयं नि स्वाहा। जयमाला जय जय पुष्पदंत परमेश्वर परम धर्म सारथी प्रमाण । पुण्या पुण्य निरोधक पुष्कल प्रथमोंकार रूप विभुवान ॥१॥ निजस्वभाव साधन से तुमने परविभाव का हरण किया । शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वपद भज महामोक्ष का वरण किया ॥२॥ अट्ठासी गणधर थे प्रभु के प्रमुख श्री विदर्भ गणधर । प्रमुख आर्यिका श्री घोषा थीं समवशरण पवित्र मनहर ॥३॥ तुमने चौदह गुणस्थान गुणवृद्धि रूप हैं बतलाए । जीवों के परिणामों की इनसे पहचान सहज आए ।।४।। पहिला है मिथ्यात्व दूसरा सासादन कहलाता है। मिश्र तीसरा चौथा अविरत सम्यकद्रष्टि कहाता है ।।५।। पंचम देश विरत छठवाँ सुप्रमत्त विरत कहलाता है। सप्तम अप्रमत है अष्टम अपूर्व करण कहलाता है ।।६।। नवमा है अनिवृत्ति करण दशम सूक्षम सांपराय होता । ग्यारहवा उपशांतमोह बारहवां क्षीणमोह होता ॥७॥ तेरहवां सयोग चौदहवां है अयोग केवलि गुणथान । निज परिणामों से श्रेणी चढ़ जीव स्वयं पाता निर्वाण ॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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