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________________ २०२ जैन पूजांजलि परम महा ई परम ज्योतिमय परम स्वरूप । परम ध्यापमय परम ज्ञानमय परम शांतिमय परम अनूप ।। इकदिन नभ में बिजली चमकी, नष्ट हुई तो किया विचार । नाशवान पर्याय जान छाया. तत्क्षण वैराग्य अपार ।।५।। वन सर्वार्थ नागतरु नीचे परिजन परिकर धन सब त्याग । पंच मुष्टि से केश लोंचकर किया महाव्रत से अनुराग ॥६॥ हए तपस्या लीन आत्मा का ही प्रतिफल करते ध्यान ।। शाश्वत निजस्वरुप आश्रय ले पाया तुमने केवलज्ञान ७॥ थे तिरानवे गणधर जिनमे प्रमुख दत्तस्वामी ऋषिवर । मुख्य आर्थिका वरुणा, श्रोता दानवीर्य आदिक सुरनर ॥८॥ समवशरण में तुमने प्रभुवर वस्तु तत्त्व उपदेश दिया । उपादेय है एक आत्मा यह अनुपम सन्देश दिया ।।९।। ज्ञाता दृष्टा बने जीव तो राग-द्वष मिट जाता है । जो निजात्मा मे रहता है वही परम पद पाता है।।१०।। हो अयोग केवली आपने हे स्वामी पाया निर्वाण । अर्धचन्द्र शोभित चरणों मे अष्टम तीर्थकर स्वामी । जन्म मरण का चक्र मिटाने आया हू अन्तर्यामी ॥१२॥ ॐ ही श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय पूर्णाय नि । चन्दा प्रभु के पद कमल भाव सहित उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ हो श्री चन्द्रप्रभ जिनेद्राय नम । श्री पुष्पदन्त जिनपूजन जय जय पुष्पदन पुरुषोत्तम परम पवित्र पुनीत प्रधान । नवम तीर्थकर हे स्वामी सुविधिनाथ सर्वज्ञ महान ।। अनुपम महिमावत मुक्ति के क्त पतित, पावन भगवान । पूर्ण प्रतिष्ठित शाश्वत शिवमय परमोत्तम अनंत गुणवान ।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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