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________________ - श्री सुपारवनाथ जिनपूजन बड से प्रीत न की होती तो वेसर अगणित दुख न उठाता । पव पोडा कब की कट जाती मुक्ति वा मिलती हाता ।। तुम प्रसाद से मोक्ष लक्ष्मी पार्क निज कल्याण करूँ। सादि अनन्त सिद्ध पद पाऊं परम शुद्ध निर्वाण वरूँ ।।१५॥ ही श्री सय मिनेन्द्राय गर्मजन्मतमानमोक्ष, पंचकल्याण प्राप्ताय कमल चिन्ह शोभित चरण, पद्नाथ उरथार । मन वचतन जो पूजते, वे होते भवपार ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्रीं श्री परप्रभ जिनेंद्राय नम श्री सुपार्श्वनाथ जिनपूजन जय सुपार्श्व प्रभु सुप्रतिष्ठ राजा के नन्दन महाविशाल । मों पृथ्वी देवी के प्रिय सुत सहज स्वरूपी सदा निकाल ।। सुखदाता सुखपुज सर्वदर्शी सुखसागर हे सत्येश । सकलवस्तु विज्ञाता स्वामी सिद्धानन्द सत्य विधेश । आत्म शक्ति का आश्रय लेकर केवलज्ञानी आपहुए । वीतराग सर्वज्ञ महाप्रभु निष्कषाय निष्पाप हुए ।। ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अम्मम् सन्निहितो भव भव वषट् । सिंधु गगानीर निर्मल स्वर्ण झारी मे भरूँ। जन्म मरण विनाश कर मैं चार गति के दुख हरूँ।। श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र चरणाम्बुज ह्रदय धारण करूँ। निज आत्मा का आश्रय ले ज्ञान लक्ष्मी को वरूँ॥१॥ ॐ ही श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्रायजन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि । मलय चदन दाहनाशक स्वर्ण भाजन मे धरूँ। भव भ्रमण का ताप हर मैं चार गति के दुख हरु ।श्री सुपार्श्व ॥२॥ *ही श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदन नि ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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