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________________ १११ श्री सर्वतोभद्र पूजन देह तो अपनी नहीं है देह से फिर मोह कसा । - - अवतनरूपएमाला - - LIN . 1 - लोक प्रमाण असंख्यात् संकल्प विकल्पात्यक पर भाव । इनका तिरस्कार कर स्वामी राग द्वेष का करूँ अभाव ॥२९॥ मैं अटूट वैभव का स्वामी हू चैतन्य चक्रवर्ती । निज अखंड साधना न साधी ध्यान किया प्रभु परवर्ती ॥३०॥ पुण्यों के समग्र वैभव को होम आज मैं करता हूँ। जिन पूजन के महा यज्ञ में सर्वस्य अर्पण करता हूँ ॥३१॥ मुक्ति प्राप्ति की जगी भावना भव वाछा का नाम नहीं ।। ज्ञाता दृष्टा होऊँ सयोगी भावों का काम नहीं ॥३२॥ तुम प्रभु साक्षात् कल्पगुम देते मुँह माँगा वरदान । महामोक्ष मगल के दाता वीतराग अर्हन्त महान ॥३३॥ कल्पद्रुम पूजन महान का है उद्देश्य यही भगवान । पर भावो का सर्वनाश कर पाऊँ सिद्ध स्वपद निर्वाण ॥३४॥ ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वरायपूर्णाष्य नि. स्वाहा । शुद्ध भाव से कल्पगुम पूजन जो करते सुख पाते । निज स्वरूप का आश्रय लेकर सिद्धलोक मे ही जाते॥३५॥ इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र- ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय नमः । श्री सर्वतोभद्र पूजन सर्वतोभद्र पूजन करने का भाव हदय मे आया है । चारो दिशि मे जिनराज चतुर्मुख दर्शनकर सुख पाया है । यह पूजन मुकुटबद्ध राजाओ के द्वारा की जाती है । अत्यन्त महावैभव पूर्वक वसुद्रव्य चडाई जाती है ।। अतिभव्य चर्तु मुख पडप का करते निर्माण भक्ति पूर्वक । अरहन्त चतुमुख जिन प्रतिमा पथराते परम विनयपूर्वक ।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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