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________________ ११७ - श्री कल्पद्रुम पूजन मिथ्यात्व जगत में भ्रमण कराता है। सम्यक्त्व मुक्ति से रमण कराता है ।।... मणि रत्नों से दिव्य आरती मैंने की है बारम्बार । कल्पवृक्ष के पुष्पों से भी पूजन की है अगणित बार ।।५।। पर सत्यार्थ स्वभाव द्रव्य को मैंने किया नहीं स्वीकार । कभी नहीं भूतार्थ सुहाया, भाया अभूतार्थ व्यवहार ।।६।। कर्म काड शुभ राग भाव से सदा बढाया है संसार । ज्ञान कांड का लक्ष्य न साधा क्रियाकांड का कर व्यवहार ।।७।। मिथ्यादर्शन ज्ञान चरित इनके आराधक अनायतन । इनमे ही रत रहकर मैंने नष्ट किये अनन्त जीवन ॥८॥ देव मूढता साधु मूढता लोक मूढता, वसु अभिमान। जाति ज्ञान कुल रुप ऋद्धि बल पूजा तप मदहों अवसान।।९।। मिथ्यादर्शन अविरत पच प्रमाद कषाय योग दुर्बन्ध । सम्यक दर्शन हो जाये तो मै भी हो जाऊँ निर्बन्ध ॥१०॥ परमानन्द स्वरुप अतीन्द्रित सुख का धाम एक चिन्मात्र । ज्ञानानद स्वभावी चिद्धन जलहलज्योति मुक्त का पात्र ॥११॥ परम ज्योति अतिशय प्रकाशमय, कर्मों से है आच्छादित । पूर्ण त्रिकाली ध्रुव के आश्रय से होता है कर्म रहित।।१२।। श्रद्धा ज्ञान सिद्वि होते ही होता है चारित्र विकास । तभी सर्व संकल्प विकल्पों का होता है पूर्ण विनाश।।१३।। पर्यायो से दूष्टि हटाकर निज अखड पर ही हूँ दुष्टि । परम शुद्ध पर्याय प्रगट हो सिद्ध स्वपद की होगी सृष्टि ॥१४॥ भव्य जीव भी जब तक पर द्रव्यो मे ही रहता आशक्त । तब तक मोक्ष नहीं पाता है चाहे जितना रहे विरक्त ॥१५॥ साम्य समाधि योग अथवा शुद्धोपयोग या चिन्त निरोध । आर्तरौद्र दुर्ध्यान छोड हो धर्म शुक्ल भावना प्रमोद ।।१६।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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