SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सप्त ऋषि पूजन यदि भव सागर दुख से भय है तो तज दो पर भाव को ।। करो चिन्तवन शदातम का पालो सहज स्वभाव को ।। - - जयमाला महा पूज्य पावन परम श्री सात ऋषीराज । आत्म धर्म रथ सारथी तारण तरण जहाज ॥१॥ तीर्थकर मुनि सुव्रत प्रभु का जब था शासन काल महान । रामचन्द्र बलभद्र नृपति के गजे थे जग में यश गान ॥२॥ धर्म भावना से करते थे अगणित जीव आत्म कल्याण ।। चारण आदि ऋद्धियों पाकर पा लेते थे मुक्ति विहान ॥३॥ नगर प्रभापुर के अधिपति थे श्री नन्दन नृप वैभववान । उनके सात सुपुत्र हुए धरणी रानी से अति विद्वान ।।४।। सुरमन्यु, श्रीमन्यु, निश्चय, जयमित्र, सर्व सुन्दर जयवान । श्री विनयलालस गुणधारी, सत्य शील से शोभावान।।५।। लाड प्यार मे सर्व भौतिक सुख से भूषित सुकुमार । राजकाज भी देखा करते थे सातों ही राजकुमार ।।६।। नृप प्रीतिंकर मुनि बन घोर तपस्या में रत हुए महान । शुक्ल ध्यान धर घाति कर्म हर पाया अनुपम केवलज्ञान ॥७॥ अगणित देवों ने स्वर्गों से आकर गाया जय जय गान । पिता सहित सातों पुत्रों को भी आया निजआतम भान ॥८॥ प्रतिबोधित हो दीक्षा मुनि पद अंगीकार किया । अट्ठाइस मूल गुण धारे मोक्ष मार्ग स्वीकार किया ।।९।। श्री नन्दन ने केवल ज्ञान प्राप्त कर सिद्धालय पाया । सातों पुत्रों ने भी तप करके सप्त ऋषि नाम पाया॥१०॥ ये सातों ही एक साथ तप करते थे भव भयहारी । महाशील का पालन करते अनुपम दान ब्रह्मचारी ॥११॥ कुछ दिन में इन चारणादि ऋद्धियों के स्वामी । महा तपस्वी परम यशस्वी ऋद्धीश्वर जग में नामी ॥१२॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy