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________________ श्री गौतमस्वामी पूजन समाकत का सावन माया समरस की सगीहडीरे । अंतस की रोती सरिता राई उमड़ पड़ो रे ।। शुभ वैशाख शुक्ल दशमी को हुआ वीर को केवलज्ञान । समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान ॥३॥ बारह सभा बनी अति सुन्दर गन्मकुटी के बीच प्रधान । अन्तरीक्ष में महावीर प्रभु बैठे पचमासन निज भ्यान I४॥ छयासठ दिन हो गये दिव्य ध्वनि खिरीनहीं प्रभु की यह जान । अवधिज्ञान से लखा इन्द्र ने 'गणभर की है कमी प्रधान ॥५॥ इन्द्रभूति गौतम पहले गणधर होंगे यह जान लिया । वृद्ध ब्राम्हण बेश बना, गौतम के घर प्रस्थान किया ॥६॥ पहुंच इन्द्र ने नमस्कार कर किया निवेदन विनयम । मेरे गुरु श्लोक सुनाकर, मौन हो गये ज्ञानमयी ॥७॥ अर्थ भाव वे बता न पाये वही जानने आया हूँ। आप श्रेष्ठ विजन जगत में शरण आपकी आया हूँ ॥४॥ इन्द्रभूति गौतम श्लोक श्रवण कर मन में चकराये । झूठा अर्थ बताने के भी भाव नहीं उर मे आये ॥९॥ मन में सोचा तीन काल, छै द्रव्य, जीव, षट लेश्या क्या? नव पदार्थ, पचास्तिकाय, गति, समिति, ज्ञान, व्रत, चारित्रक्या १०॥ बोले गुरु के पास चलो मैं वहीं अर्थ बतलाऊंगा। अगर हुआ तो शास्त्रार्थ कर उन पर भी जय पाऊंगा ११॥ अति हर्षित हो इन्द्र हृदय मे बोला स्वामी अभी चले । शंकाओ का समाधान कर मेरे मन की शल्य दलें ॥१२॥ अग्निभूति अरु वायुभूति दोनों भाता संग लिए जभी । शिष्य पांच सौ संग ले गौतम साभिमान चल दिये तभी ॥१३॥ समवशरण की सीमा में जाते ही हुआ गलित अभिमान । प्रभु दर्शन करते ही पाया सम्यकदर्शन सम्यकज्ञान ॥१४॥ तत्क्षण सम्यकचारित धारा मुनि बन गणधर पद पाया । अष्ट• ऋद्धियाँ प्रगट हो गई ज्ञान मनापर्यय पाया IR५॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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