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________________ २३४ १२२. अथवा आत्मपरिणाम जे शुद्ध नैतन्यस्वमा छ, तेनो निर्विकल्पस्वरूपे सत्तभोक्ता थयो. १२३ आत्मानु शुद्ध पद छे ते मोन छे, अने जेयी ते पमाय ते तेनी मार्ग छे, श्री मदगुलए कृपा करीने निग्रंयनो सर्व मार्ग नमजाव्यो। १२४ अहो ! अहो ! फरणाना अपार समुद्रस्वम्प आत्मलक्ष्मीए युक्त सद्गुरु, आप प्रभुए आ पामर जीव पर आश्चर्यकारक एवो उपकार गर्यो १२५ हुँ प्रभुना चरण आगळ शुं धरूं ? (सद्गुरु तो परम निष्काम छ, एक निष्काम करणाथी मात्र उपदेशना दाता छे, पण शिष्यधर्मे शिष्ये आ वचन का छे) जे जे जगतमा पदार्थ छे, ते सौ आत्मानी अपेक्षाए निर्मूल्य जेवा छे, ते आत्मा तो जेणे आप्यो तेना चरण समीपे हु बीजुं शुं धरु ? एक प्रभुना चरणने आधीन वर्तु एटलु मात्र उपचारथी करवाने हु समर्थ छु. १२६ आ देह, 'आदि' शब्दथी जे कई मारु गणाय - छे ते, आजथी करीने सद्गुरु प्रभुने आवीन वर्तो, हुं तेह प्रभुनो दास छु, दास छु, दीन दास छं
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
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