SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ L- ve देह जीव पाये भारे में अज्ञान घरे, जियानी प्रवृत्ति पण नंगी ने थाम छे; जीवनी उत्पत्ति बने रोग, गाल, दुस, मृत्यु, दहनो स्वभाव जीव पदमा जगाय छे, एवो जे अनादि एकम्पनो मिथ्यात्वभाव, भानीना वचन बडे दूर थई जाय ऐ; भासे जड पतन्यनो प्रगट स्वभाव मिन्न, बन्ने द्रव्य निज निज रूपे स्थित थाय छे, २ मुं० का० वद ११, मंगळ, १९५६ (३४) सद्गुरुना उपदेशची, समजे जिन रूप; तो ते पामे निजदगा, जिन छे आत्मस्वरूप. । पाम्या युद्ध स्वभावने, छे जिन तेथी पूज्य, समजो जिनस्वभाव तो, आत्मभाननो गुज्य. २ स्वरूपस्थित इच्छारहित, विचरे पूर्वप्रयोग; । अपूर्व वाणी, परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य. ३ नडियाद, मासो वद २, १९५२
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy