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________________ १४ मोह स्वयभूरमण समुद्र तरी करी, स्थिति त्या ज्या क्षीणमोह गुणस्थान जो, अत समय त्या पूणस्वरूप वीतराग यई, प्रगटावु निज फेवलनान निघान जो अपूव० १५ चार कम धनघाती ते व्यवच्छेत ज्या भवना वीजतणो जात्यत्तिक नाश जो, सव भाव माता द्रष्टा सह शुद्धता, कृतकृत्य प्रभु वीय अनंत प्रकाश जो अपूर्व० १६ धंदनीयादि चार कम वर्ते जहा, बळी सौंदरीक्त आकृति मान जो, से पहायुप आधीन जेनी स्पिति छ, आयुप पूर्णे, मरिये दैहित पात्र जो अपूर्व० १७ मन, वचन, पाया ने कर्मनी वगणा, छूटे जहा सकळ पुद्गल सबघ जो, एव अयोगी गुणस्थानव त्या यततु, महाभाग्य सुगदायव पूर्ण अवध जो अपूर्व० १८ एक परमाणुमात्रनो मळे न पाता, पूर्ण फलफ रहित अडोल स्वरूप जो,
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
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