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________________ १२२ विरोध करता नही; पण योगनी अभ्यास करी पूर्णताए ते स्वरूपना ज्ञाता थवानु राखजो. मुबई, का० वद ११, मगळ, १९५६ ( ४७ ) __ वीतरागनो कहेलो परम शात रसमय धर्म पूर्ण सत्य छे, एवो निश्चय राखवो. जीवना अनधिकारीपणाने लोधे तथा सत्पुरुषना योग विना समजातु नथी, तो पण तेना जेवू जीवने ससाररोग मटाडवाने बीजु कोई पूर्ण हितकारी औषध नथी, एवं वारंवार चितवन करवु आ परम तत्त्व छ, तेनो मने सदाय निश्चय रहो, ए यथार्थ स्वरूप मारा हृदयने विषे प्रकाश करो, अने जन्म मरणादि वधनथी अत्यत निवृत्ति थाओ । निवृत्ति थाओ !! हे जीव | आ क्लेगरूप मसार थकी, विराम पाम, विराम पाम, काईक विचार, प्रमाद छोडी जागृत था ! जागृत था !! नही तो रत्नचितामणि जेवो आ मनुष्यदह निष्फळ जशे. हे जीव । हवे तारे सत्पुरुषनी आज्ञा निश्चय उपासवा योग्य छे. ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः वर्ष २७ मु.
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
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