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________________ ११० . उदयथी अथवा उदामभावसंयुक्त मदपरिणत बुद्धिथी भोगादिने विषे प्रवृत्ति थाय त्या सुधीमा जानीनी आज्ञा पर पग मूकीने प्रवृत्ति थई न सभवे, पण ज्या भोगादिने विपे तीन तन्मयपणे प्रवृत्ति थाय त्या ज्ञानीनी आज्ञानी कई अंकुशता सभवे नही, निर्भयपणे भोगप्रवृत्ति संभवे. जे निवंस परिणाम कह्या छे, तेवा परिणाम वर्ते त्या पण 'अनतानुवंधी' सभवे छे. तेम ज 'हु समजु छु', 'मने बाघ नथी' एवा ने एवा वफममा रहे, अने 'भोगथी निवृत्ति घटे छे', अने वळी कई पण पुरुषत्व करे तो थई शकवा योग्य छता पण मिथ्याजानथी ज्ञानदशा मानी भोगादिक'मा प्रवर्तना करे त्या पण 'अनतानुवघी' सभवे छे जानतमा जेम जेम उपयोगन शद्धपणु थाय, तेम तेम स्वप्नदशानुं परिक्षीणपणु सभवे मुबई, अपाड, १९५१ प्रथम पदमां एम का छे के : हे मुमुक्षु । एक आत्माने जाणता समस्त लोकालोकने जाणीश. अने सर्व जाणवानु फळ पण एक आत्मप्राप्ति छे, माटे आत्माथी जुदा एवा वीजा भावो जाणवानी वारवारनी इच्छाथी तुं
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
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