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________________ (६७) निवध बढ न जावे अतः इस्मेंहि समावेश समझ लेवे । पल्ल पितेन विद्वद्वर्येषु जनेषु । मिय सनमित्रो! अब इधर साख्य मतकी तरफ निगाह करते हैं, तो इनकी तत्त्व सरया कुछ अनोखाही ज्ञान देरही है । प्यारों ! इनके मन्तव्योंको देखकर मुझे अतीव आश्चर्य पैदा होता है, और विचार आता है कि नामालुम क्या बात है । क्या उस परम कृपालु वीरभगवत् के वचन इनके कानातक गति नहीं कर सकते' या उनके वचनोका ईपालु होकर इन पामरोंने मनन नहीं किया ? अथवा इनकी भवितव्यताने इनको इस फदेसे निकरने नहीं दिया जो साक्षात् विरुद्ध वातोका बयान करते हुएभी जरा शर्म नहीं खाते हैं । सारय-क्यों ? मुफतमें मगजमारी करनी शुरुकी है कुछ जानतेभी हो कि युदि रोला पाना शुरु किया है ? अगर कुच्छ इल्म है तो बतलाइये। हमारा कौनसा मन्तव्य ठीक नही है ? जैन-देखिये, आप आत्माको भोक्ता समयनेपरभी कर्ता नहीं मानते हो यह कितनी बडीमारी भूल है । साग्य-कहिये साहिन इसमें क्या भूल है' सो जरा दलीलसे समझाइये।
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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