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________________ आपका निषेध करनाही जीवके अस्तित्वको सावित करता है। क्योंकि जिस चीजका निषेध किया जाता है वो चीज कहीं तो जरुर होती है । मसलन कहा जाना हैकि यहाँपर घटा नहीं है, तो इससे साबित होता है कि और जगहपर घट अवश्यमेव होगा। इतना कहने मात्रसेही भी नहीं बल्के और जगह पर हम प्रत्यक्षतः देखते हैं । इस्में अनुमान यह है: ॥ इह यस्य निषेधः क्रियते, तत् स्वचिदरत्येव, यथाघटादिकं । मतलब उपरकी इबारतसे हल है । देखिये । अब आप समझ गये होंगे। क्योंकि आपने निषेध तो कियाही था, इससे सावित हो गयाकि जीव नामका पदार्थ वस्तुतः है। वरना निषेध कैसे किया जाता ? यतः इस दुनिया में जो सर्वथा नहीं होता है; उस्का निषेधभी कोई नहीं करता । जैसे पांच भूतोंके अलावा छठे भूतकी न तो विधि है और नहीं निषेध है। नास्तिक-आपका यह कथन अन्यथा है । क्योकि गर्दभशृंग-वंध्यापुत्र, वगेरः पदार्थ अभाव रुप हैं । मगर फिरभी इनका निषेध किया जाता है । इसलिये आपका कथन दुरुस्त नहीं है।
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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