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________________ ( २७५ ) ये सारी बातें प्राप्त न हो, उनको शान्ति होना सभवनीय नहीं है। ऊपर किये हुए वर्णनमें दो प्रकारको अवस्था चाली कस्तुए है । एक वह जिसमें परतनता, दुःख और अज्ञान हैजैसे जीवात्मा और दूसरी वह जिसमें स्वतनता, मुख और ज्ञान रहता है-जैसे ईश्वर, इसका मूल कारण यही है कि ससारी जीवात्मा अशुद्धात्माए हैं और इश्वर शुद्ध आत्मा है। जाडेमें जब अपनेको ठड लगती है तो अपन अग्निका सेवन करते है । जो शिर्षन होते हे वो किसी श्रीमान्के पास जाकर उसकी सेवा करते है, उसकी कई प्रकारसे ऐसी भक्ति करते है जिससे वह प्रसन्न हो । जिसके पास द्रव्य दो उसके पास गये पिना, और वहा जाकरकेभी उसमी ठीक मर्जी सम्पादन किये बिना पैसा नहीं मिलता है अर्थात् जिसको जिस व. स्तुकी इच्छा होती है वह उस वस्तुको प्राप्त करने के लिये जहा वह वस्तु हो वहा जाता है। इच्छित पदार्थको मिलानेका श्रद्वायुक्त प्रयत्न करनाही उस पदार्थकी भक्ति कहाती है । विद्यार्थी विधा माप्तकरनेमें सचे मनसे जो अम उठाते है उसे ही विद्यापी भक्ति कहते हैं । आन सतनताकी इच्छा करते है तो जिन उपायोंसे सातत्रता मिल सकती हो, उनका विचार करना अपश्य है।
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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