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________________ (. १४) दृशोगवयः" अर्थात् मानिंद गोके गवय ( रोझ ) होता है । इससे समझ लिया यह रोझ है। जीवके लिये इस तरहका उपमान प्रमाण तीन जगत्में नहीं है कि जिससे जीव उपमित हो सके। अगर कहा जावे कि कालाकाश दिगादिक जीव तु. ल्य हैं तो यहभी ठीक नहीं। क्योंकि इन पदार्याकाभी निश्चय नहानेसे इन्हेंभी तद्वत् समझें, और अर्थापत्तिसेभी आत्मा सिछ नहीं हो सका है । क्योंकि अर्थापत्तिका स्वरूप ऐसे लिखा है कि, जैसे किसीने कहा कि " पीनादेवदत्तः दिवान भुङ्क्ते ( सुंक्ते)" अर्थात् लष्टपुष्ट देवदत्त दिवसमें नहीं खाता है; तो इससे सावित होता है कि रात्रि को खाता होगा। क्यों कि वगेर खानेके लष्टपुष्ट नहीं हो सकता है। यहांपर पीन (ल. __ष्टपुष्ट ) इस विशेषणने जवरदस्ती रात्रिको खाना साविन किया, तो आत्मसिद्धिके बारेमें कोइ अापत्तिरूप प्रमाणभी नही है कि जिस्के वलसे आत्माकी सिद्धि की जावे । पूर्वोक्त पांच प्रमाणोंसे रहित होनेसे आकाशके फूलकी तरह आत्मा नामकाभी कोइ पदार्थ मौजूद नहीं है। अगर है तो प्रमाणद्वारा वतलाइये ?.. .. आस्तिक-बडी खुशीका वक्त है जो आपने मुजको सर्वधा बोलनेके लिये मौका दिया । अब जरा अच्छी तरहसे कानोंका मैल निकालकर एकाग्र चित्तकर श्रवण करें । मगर इतना याद हे जिस तरहसे मैं आपकी तहरीरको बढानेको हरदम अपनी
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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