SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३० ) को कर्त्ता मानते हैं। मगर यह ठीक नहिं इसका विशेष वर्णन्* देखना हो तो जैनतत्वादर्श या अज्ञानतिमिर-भास्करमें देख लीजिये, तो फिर मुक्तिका अखंड सुख प्राप्त करना केवल वातोंसें नहीं हो सकता. जो मोक्षाभिलाषी हैं उनकों. उपरोक्त वातोंके सिवाय महान् कष्ट व उपसर्ग सहन करनेही पड़ते है और जब वे इन कष्ट कर्मोसे विजय प्राप्त करलेते हैं तवही वे मोक्षगामी होते हैं धर्म-धर्म दो प्रकारका होता है यानि निश्चय (आत्मिक) धर्म व व्यावहारिक धर्म. व्यावहारिक धर्म २ प्रकारका होता है १ लौकिक २ लोकोत्तर. लौकिक धर्म उसको कहते हैं जिसको कि नीति पूर्वक चारो वर्ण अपने २ कर्तव्योंमें प्रव त्तते हैं यानि क्षत्रियोंका धर्म नीति मार्ग व सत्य धर्मकी रक्षा कर अनीतिका दमन करना, वैश्यका धर्म सद् व्यवहार करना ( व्यापार ) करनेका इत्यादि. लोकोत्तर धर्म उसको कहते हैं कि देवगुरु आदिकी भक्ति व दान शील तप भावना यह चार प्रकारसे धर्म साधन करना अर्थात् परोपकार क्षमा इन्द्रियोंका * यदि तर्क किया जावे कि शुभाशुभका फल कर्मसे होता है तो इश्वरकी अपेक्षा क्यों करना चाहिए ? उत्तर-इश्वर के स्मरण व भक्तिसे पुण्यवंध व कर्मोकी निर्जरा होनेसे परम मुख प्राप्त होता है मूर्तिपूजाकाभी यह कारण है.
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy