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________________ ( २२५) + अतिम तीर्थर वीरमगुने इस धर्मका पुर्ण उग्रोत पिया और उनके निर्माण-पत्र प्राप्त होने वा परोपीारी आघायर्याने अपने शान-पलसे जानीक ममयसरी स्थिति मान्टम पर भोरे व भव्य जीवारे हितार्य या यों कहिये फि हमको गगन नाणी बनाने के लिये मे शाग रिसे पिनभिनय "जेनर्ग" की पताका भारत वर्षमें उडरही है और चिपार तक उठती रहेगी अपयह पतलाना आवश्यकई फि. "जैनधर्म " यो प्रत्येक तीर्थकराने और उनके पाट पृज्य याचाोंने विसतरह स्वर्ता, और इस पवित्र धर्मका क्या उद्देशई नौर इस शुभ धर्मको अगीकार करनेवालो क्या होता है यह नगसे मनाया जाता है। प्रभारी अतिम तीर्थकर ना उनके बाद आचायॉन इस म एसा प्रचार किया यानि प्रथम तीर्थकरने जैसे तत्व फधन पियेथे सहि सर तीर्थगने प्रवर्ताये, गणघरान त्र रचे भार आवायाने पुस्तकाम्ट किये, उसमें रिसी तरहमा पसिना नदि हुआ, इसहीसे इस महत धर्म प्रचारफ पिता । यदि यो का परकि नर गैन धर्म परिवर्तन नहि हुमा तो वर्गमा को फिरके जैनोपोंके नगर माते है ये क्यों ? उपर-ताधारी पथनानुसार अर्थात् दायांगी अनुमार को अभीतर गच्चे धर्मरो प्रवर्तने ई यहाजनी ४, पाशी जगाभारा समपना पाहिये
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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