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________________ (२२१) अभ्यासाद ध्यान मौनादि । किमभ्यासस दुष्करम् ॥ १॥ ____ अर्थ-अभ्याससे सर्व प्रकारकी क्रिया और सर तरहकी कला व यान मौनादि प्रत होसक्ते हैं और दु सा य कार्यभी अभ्याससे मुशमिल नहीं है हे विभो ? मन यह नपुसकलिंग है मगर पुरुपलिंग वारे मनुप्यभी इसको सा य नही कर सक्ते हैं पुरुपवर्ग तप जपमें, कष्टक्रियामें, जल तैरन विद्या, आकागमार्ग जानेमें विद्युत प्रगटानेमें, भूत पिशाच डाकिनीको वश सरनेमें नमर्थ है, मगर नपुसक लिंग मनको वश नही कर सक्ते. और जर मुगुर समझाते है तो यह मन ऐसा चतुर बन जाता है __ और नाटिके दुख सुनते वरत ऐसे उच्चार करता है कि __ करे उस धन्य है हमारे जैसे पापियोंकी गति न जाने कैसे होगी ऐसी मीठी मीठी बातेकर उपाश्रयमें तो दुनिया भरके समझदार बनजाते है और उपाश्रय बहार निकले कि अरे साधु महाराजका फरतव्य सदुपदेप देनेका है और अपना करतव्य अरण करनेका है ऐसी वास्य पटुता चलाने लगाता है और जन शाबानुरल भवर्तन करनेका समय आता है तो निलकुल चिमुस हो वैठता है. इस लिये योगीराजभी फरमाते हैं कि हे प्रभु' जिस क्टर आपने अपना मन वा किया वैसेही मेरा क
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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