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________________ (०१७ ) पुरके मोहमें फसकर प्रसन्नचर राजर्षी व्यानभ्रष्ट हुवे और शरीरमें कोष व्याप्त हुआ मनही मनमें लडाइ करनी शुरुको और दुश्मनोको मारने लगे इतनेमें वीरमभुके दर्शनार्थ जाते हरेणीक राजा मुनिको देखकर वढना करने लगे-मगर मुनिने धर्मलाभ नहीं दिया जिससे श्रेणीक राजाने सोचा कि मुनि गुह यानमें लयलीन हैं ऐसा विचारकर वीरभगवानके ‘समीप पटुचकर श्रेणीक महाराज प्रश्न करते हुवे कि हे भगचान् ? मेने देखे उस हालतमें प्रसन्नचद्र राजपी आयुष्य पूर्ण करे तो कौनसी गतिम जाय ? प्रत्युत्तर प्रमु कहते हुवे कि-हे श्रेणीक ' सातमी नर्फमें उत्पन्न होवे ऐसा मुन श्रेणीक राजा विस्मय होकर पिचारमे प्रवेश हुवे. पाठको' श्रेणीफ राजा विचारमें है चलो अपन प्रसन्नचद राजपीकी तरफ चले हे भाइ। मुनि तो प्रचड युद्ध में लगे और मनही मनमें सर्व शत्रुओंका वध करने लगे और एक प्रगान पाकी रहा, मगर शस टूटजानेसे शिरपरके मुकुटसे मारने की तैयारी कर, मुकुट लेनेको शिरपर हाथडाला तो केश गुचित गिर हाथ आया और भ्रष्ट हो गये. वह महात्मा साव धान दुवे अपनी आत्माको घि कारने लगे, ज्ञान द्रष्टी जाग्रत हुइ, विपर्यास भार नाश हुवा और सोग प्राप्त कर ससार भ्रष्ट होने पाले मुनि कहने लगे कि-किसका राज्य, सिका परिवार, यह सर अस्थिर है और मैनें प्रथमसतरा भग किया
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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