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________________ ( १४९) है उसमें प्रसग बताते है कि पित्रादिके निमित्त अर्थात् माता, पिता, पितामहादि, द्ध मृत्यु पावें तो पीछेसे नुकता करनेके सम्बन्धमें मुनिको पूछकर या पिना पूछे गरना योग्य है, ऐसा नहीं रहते क्यों नहीं कहते ? उसके खुलासेमें मुनिराजको विविध प्राणातिपातादिका त्याग है वो हेतु बताते तो कभीसे श्रावकमाई उसमेंसे निकलनेका रास्ता तलाश करलेते, मुनिरानको तो निविध २ हिंसादिके परखान होनेसे वो घरने योग्य ह ऐसा नहीं चाहते, परतु अपने भावकको त्रिविधका त्याग नहीं, उससे अपनको फरनेमें या कहनेमे कुछ अन्जान नहीं परन्तु धुरन्धर युगमधान १४४४ ग्रन्धोंके धनानेवाले जैन शासनके स्तभभूत श्रीमान् हरिभद्रमरि महाराज कहते हैं किमिथ्यात्वकी वृद्धि हो उस बारद मुनि ऐसा नहीं कहते अब मिथ्यात्वका त्याग तो मुनि और श्रापक दोनोंको है-इसमें श्रावक साधुसे अलग हो जाये ऐसा नहीं, जितनी आवश्यकता मुनिराजको मिव्यात्वसे वचने की है उतनी आवककोभी है इसमें न्यूनाधिक नहीं-इससे मुनिराज जर मिथ्यात्वका हेतु समझकर उसको कर्नच्य कह नही सक्ते तर श्रावकभी उसको कर्तव्य नहीं बहसक्ते, मानसके वैसेही आचरण होते है । इस परसे इतना तो सिद्ध होता है कि यह रिवाज परमपरा या बहुस यपासें जारी हुआ मालम नहीं देता-परन्तु मध्यमें जन अन्न धी वगैर• रसादि पदार्थ पिसी समय सस्ते हुएहोंगे
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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