SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९२ ) लव इनकार्याको वोहि कर सकता है जिसमें चैतन्य होगा. इसलिये " चेतना लक्षणो जीवा" यानि जीवका लक्षण - तन्य है, सो चैतन्य आत्मासे भिन्नाभिन्न समझा जाता है, देखिये! वैशेपिक लोगोने धर्मका धर्मी के साथ सर्वथा भेद स्वीकारा है और वौद्धोने एकान्त अभेद स्वीकारा है इसरोत्यनुसार वै. शेषिक लोग आत्मासे ज्ञानको भिन्न समझते हैं. और बौद्ध एकान्त अभिन्न समझते हैं, ऐसे माननेसे इन दोनोंका मन्तव्य उड जाता है । अतःसर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवने इनदोनों विकल्पाको स्वीकृत रखकर अपनी सर्वज्ञताका परम परिचय दिखलाया है. तथाहि अगर ज्ञानका आत्मासे सर्वथा भेद माना जाँय तो वादि प्रतिवादीके दरम्यान कवी जय पराजय नहोना चाहिये ! क्योंकि जिसबुद्धि प्र.गलभ्यसे वादी प्रतिवादीका पराजय करेगा उसी प्रागलभ्यद्वारा प्रतिवादी छूट जायगा क्योंकि जैसाहि पागलभ्य वादिम है ऐसाहि प्रतिवादीमें मानना पडेगा. इसलियेकि वादीमें रहे हुए पागलभ्यका वादीकेही साथ संवन्ध नहीं उसी नागपर एककाहि हक नहीं होसक्ता जैसे वाजारके रस्तेके साथ हमारे एकीलेका ताल्लुक नहीं है तो हरएक पुरुष उसपर चल सक्ता है मगर अपने घरके साथ अपनाहि ताल्लुक होता है इसलिये मरजी मुताविक काम कर सक्ते है मरजी चाहे किसीको वैठने उठने व फिरने देवें न मरजी चाहे तो नहीं, इसलिये ज्ञानका सर्वथा भेद स्वीकारने वालोंके मतमें
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy