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________________ १. सिद्ध-गति सब प्रकार के आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक उपद्रवों एवं आपत्तियों से सर्वथा रहित है। इसी कारण उस गति को शिव कहते हैं । २. वह गति अपने शुद्ध स्वरूप में सदैव अवस्थित है, उस शुद्व दशा को प्राप्त जीव अपने स्वरूप से कभी विचलित नहीं होता, अत: वह अचल भी है। ३. शरीरों से सर्वथा रहित होने से वह आरोग्य भी है, क्योंकि "मूले नष्टे कुतः शाखा" ? जब शरीर ही नहीं तो रोग किसमें उत्पन्न होंगे ? शरीर भोगायतन है, शुभ-अशुभ कर्मो से ही शरीर बनता है, शरीर में ही रोग उत्पन्न होते हैं, जब कारण और कार्य दोनो ही समाप्त हो गए तो अस्वस्थता की निवृत्ति स्वाभाविक है। ४. उस उत्तम दशा को प्राप्त कर सदा के लिये अनन्तअनन्त गुणों का आविर्भाव होना सुनिश्चित है, अथवा उस गति को अनन्त जीव प्राप्त कर चुके है, अत: उसे अनन्त भी कहते है। ५. उस गति को प्राप्त कर कोई भी गुण किसी भी निमित्त से पूर्ण होने पर क्षय होने वाला नहीं होता, अत. उसे अक्षय भी कहते है। ६. उस गति को प्राप्त कर आध्यात्मिक आनन्द एकरस रहता है, अनन्तानन्त काल बीतने पर भी उसमे न्यूनता ३४] [ तृतीय प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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