SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उनके उपदेश तो अरिहन्त के उपदेश के अनुसारी होते हैं, अतः सर्वप्रथम अरिहन्तों को नमस्कार किया गया है जो सर्वथा युक्ति-युक्त ही है। शंका हो सकती है कि उपाध्याय और साधु को नमस्कार द्रव्य और भाव से होना सम्भव है, क्योंकि वे प्रत्यक्ष हैं, किन्तु अरिहन्त और सिद्ध ये तो हमारे लिए बिल्कुल परोक्ष हैं, उन तक नमस्कार का पहुंचना कैसे सम्भव हो सकता है ? परन्तु नमस्कार वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा वन्दनीय के प्रति बहुमान, विनय सिद्ध होती है और अपनी लघुता व्यक्त होती है। प्ररिहन्त और सिद्ध दोनों की गणना परमात्मा की कोटि मे होती है, वे द्रव्य एवं भाव-वन्दना को अपने ज्ञान में देख ही लेते हैं । हमारे लिए वे परोक्ष हैं, किन्तु उनके लिए हमारी कोई क्रिया परोक्ष नहीं है । उन के केवल ज्ञान में परोक्षता और अपरोक्षता कहीं है ही नही, निश्चय नय की दृष्टि से नमस्कार के द्वारा हृदय-शुद्धि विनय -भक्ति एवं प्रीति आदि से अशुभ कर्मों की निर्जरा और पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होना तो निश्चित ही है, क्योंकि जिस शुद्ध लक्ष्य को लेकर नमस्कार किया जाता है, उसका फल नमस्कार करने वाले को मिल जाता है। दूसरी शंका यह भी हो सकती है कि नमस्कार उत्पन्न होने से अशाश्वत है या शाश्वत ? यदि वह उत्पन्न होता है तो उसके उत्पन्न करने वाले निमित्त क्या हैं ? इसका नमस्कार मन्त्र [१६७
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy