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________________ इस प्रमुखतम तत्त्व का जैन मनीषियों ने अध्ययन करके उसे ही शुक्ल लेश्या, पद्मलेश्या, कपोत-लेश्या, कृष्णलेश्या आदि का नाम दिया था। महावीर जैसे सर्वज्ञ उत्तमपुरुष लेश्या-दर्शन के आधार पर अपनी दिव्य दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा का तुरन्त ज्ञान प्राप्त कर लेते थे। विद्यत-धारा की पावनता और नियंत्रण और उससे अभीष्ट कार्य कराने के लिए साधक उसका ऐसा प्रयोग करता है जिससे वह शरीर से बाहर न जाकर शरीर के अन्दर ही कार्य रत रहे और आवश्यकता पड़ने पर उसे बाहर भी निकाल दिया जाय । इसके लिये विविध प्रासनों का विधान किया गया है । प्राय: देखा जाता है कि साप प्रादि लम्बे आकार के जीव लम्बे रहकर अपनी सुरक्षा नहीं कर पाते, वे सुरक्षा के लिए कु ण्डलाकृति में अपने शरीर को परिणत कर लेते हैं । यह प्रोज की सुरक्षा और नियन्त्रण का अमोध उपाय है । सर्प कुण्डल मार कर ही अपने फनो को फैला सकता है, लम्बाकृति मे नहीं, क्योकि उस दशा मे वह अपने शरीर की विद्युत-धारा का ऐसा वर्तुल बना लेता है जिससे वह अपने शरीर की समस्त चेतना को फणों में केन्द्रित कर लेता है । जप के समय सिद्धासन, कुक्कुटासन- पद्मासन, गोदहासन आदि भी इसी प्राशय से प्रयोग में लाये जाते हैं। जब जप करते हुए हमारी चेतना विद्युत-वतुल के साथ तादात्म्य कर लेती है तो मानसिक एकाग्रता अनायास ही हो जाती है । चौदह ]
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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