SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. भिक्षु-भिक्षु दो तरह के होते हैं, एक वह है जो अभावग्रस्त होकर तृष्णा की पूर्ति के लिए दर-दर भटकता है, दूसरा वह है जो स्वाभिमान एवं साधना को सुरक्षित रखते हुए अहंकार की निवृत्ति के लिए और उदर पूर्ति के लिए निर्दोष भिक्षा ग्रहण करता है, संचय के लिए नहीं। भिक्षु के लक्षण बतलाते हुए शास्त्रकार लिखते हैं असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइन्दियो सव्वो विप्पमुक्के । अणुकसाई लहअभक्खी, चिच्चा गिह एग चरे स भिक्खू ॥ अर्थात् जो शिल्प कला आदि दस्तकारियों से जीवननिर्वाह नहीं करता, जिसका कोई मठ, डेरा. घर नहीं है,जिस के मन में न कोई मित्र है और न शन, जिसने मन, वाणी और इन्द्रियों को नियन्त्रित किया हुआ है, जो सब तरह के संसारिक बन्धनों से मुक्त है, जिसमें कषाय की मात्रा अतीव स्वल्प है, जो बहुत कम खाता है और वह भी निःसार, जो धन-धान्य से भरे हुए एवं परिजनों से युक्त घर को छोड़कर और राग-द्वेष से मुक्त होकर वन में सिंह की तरह अकेला निर्भय विचरने वाला है, वह साधु भिक्षु कहलाता है ।' ३. सयमी-लज्जा और संयम दोनों में संकोच उत्तरा. प्र. १५ वां १३८] [षष्ठ प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy