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________________ (क) क्रोध-विवेक - क्रोध, मात्सर्य, ईर्ष्या, द्वेष, ये सब एक ही जड़ की शाखाएं है। क्रोध के स्वरूप को तथा उससे होनेवाले अनर्थों को जानकर उनसे निवृत्ति पाना या मन को उससे अछूता रखना क्रोध-विवेक है । निमित्त मिलने पर भी क्रोध को उत्पन्न न होने देना, यदि उत्पन्न हो जाय तो उसे शान्ति, क्षमा, सहनशीलता से निष्फल करना, उसका प्रावेश शब्दों मे न आने देना, भड़के हुए क्रोध का सम्यग्ज्ञान से शमन करना, स्व एवं पर की हानि न होने देना, मन की शान्ति को भंग न होने देना, इत्यादि रूपों में विवेक द्वारा क्रोध को निष्फल करना ही क्रोध-विवेक कहा जाता है। (ख) मान-विवेक-अहंकार का पर्यायान्तर शब्द मान है। यह विकार मन में, शरीर में और गर्दन में अकड़ पैदा करता है, जिस से अभिमानी व्यक्ति अपने को सर्वोपरि समझते हुए और दूसरों को तुच्छ मानता है। वह अपना तो सम्मान चाहता है, दूसरे का नहीं । वह दूसरे की किसी तरह की समुन्नति सहन नही कर सकता। अभिमानी व्यक्ति मानव-धर्म से तथा पूज्य जनों से विमुख हो जाता है, अभिमानी व्यक्ति के जीवन में विनय एवं विनम्रता का प्रवेश नहीं हो सकता। अतः अभिमान न होने देना, उत्पन्न हुए को विफल कर देना, 'मान-विवेक' है । जो अभिमान में चूर रहते हैं, उन्हे अपमान के थपेड़े भी खाने पड़ते है, १२० [षष्ठ प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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