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________________ जिसका उद्भव मेरु से उत्तर दिशा में स्थित नीलवत पर्वत से हुआ है और वह पूर्व की ओर बहती हुई महाविदेह क्षेत्र को दो भागो मे विभक्त करती हुई सागर मे जा मिलती है । उसका जल पथ्य, सुपाच्य, अतिशीतल, स्वच्छ और स्वादिष्ट होता है। उस महानदी की तरह बहुश्रुत-ज्ञानी भी सुजाति एव सुकुल में उत्पन्न होकर, क्रमश क्षमा, शान्ति, सहिष्णुता यादि सुगुणों का विकास करते हुए चतुविध श्रीमघ के प्रवाह के साथ सिद्ध गति को प्रोर सतत बढते ही चले जाते है। वह महानदी छोटी, वडी अनेक नदियों को अपने में सम्मिलित करती है. बहुश्रुन भी अपने सघ मे अनेक मुमुक्षु साधको को सम्मिलित करते हुए लक्ष्य की अोर बढते है । नदी का प्रवाह आगे ही बढ़ता है, वापिस नही पाता । ज्ञानी भी साधना के पथ से आगे ही बढ़ते हैं, वे कभी पीछे नहीं हटते और न कभी भुक्त-भोगों का स्मरण ही करते हैं । १५. मेरु को उपमा ऊंचाई मे मेरुपर्वत से बढ़कर इस धरातल में अन्य कोई पर्वत नही है । वह न केवल ऊंचाई मे बड़ा है अपितु ऊंचाई की जितनी भी विशेषताएं हो सकती है, वे सब उसमे है, वह भद्रशाल-वन, नन्दन-वन, सौमनस-वन और पाण्डुक-वन से युक्त है तथा रजतमय, स्वर्णमय और रत्नमय काण्डों से शोभायमान है । उत्तम से भी उत्तम जडी-बूटियो से सम्पन्न है । स्वर्ग के मनमोहक दृश्यों मे रहकर भी देव या देवियां मन ९४] [पचम प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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