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________________ स्वामी की आज्ञा के विरुद्ध न सोचना है, न बोलना है और न कुछ करना ही है। मैंने जो कुछ भी करना है, वह जिनशासन के अनुरूप ही करना है, यही मेरा कर्तव्य है । चतुर्विध श्रीसंघ में विद्या, विनय. सेवा, संयम विवेक आदि सद्गुणों का जन-जन के जीवन मे प्रचार-सचार करना मेरा कर्तव्य है । प्राचार्य के हृदय में ऐसी भावना का होना भी अनिवार्य है। प्राचार्य की प्राशातना न करना, अपमान, मानहानि प्रत्यनीकता ये सब आशातना के ही रूप हैं। प्राचार्य के प्रति मन में श्रद्धा, प्रीति रखना, वाणी से उनकी स्तुति-प्रशंसा, गुणगान करना, उनकी यशःकीति में सहयोग देना, उनकी प्राज्ञा का पालन करना, भूल करके भी कभी उनकी प्राज्ञा के विरुद्ध प्राचरण न करना, यथाशक्य उन की यावृत्य करना अर्थात् श्रद्धा एवं संयमपूर्वक उनकी सेवा, सहयोग, अनुदान आदि से साता पहुंचाना आदि शिष्य के परम कर्तव्य हैं। प्राचार्य की विनय और सेवा करता हुआ साधक महानिर्जरा करता है, कर्मो पा महापर्यवसान कर देता है। ऊपर की विवेचना प्राचार्य के पावनतम रूप, उसके कर्तव्यों और उसकी महत्ता पर प्रकाश डालती है । जनसंस्कृति का साधक आचार्य की इसी महत्ता के चरणों में "नमो पायरियाणं" कहकर नमस्कार करता हा अपनी विनय-भक्ति को प्रोत्साहित कर अपने साधना-पथ को प्रशस्त करता है। ७६] [चतुर्थ प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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