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________________ पूर्व, उत्तर, दक्षिा गमणणियत्तामार काऊण गुणवत-वर्णन अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें स्त्री-सेवन और सदैव अनंगक्रीडाका त्याग करने वाले जीवको प्रवचनमें जिनेन्द्र भगवान्ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है ॥ २१२ ॥ जं परिमाणं कीरइ धण-धण्ण-हिरएण-कंचणाईणं । तं जाण' पंचमवयं णिहिट्ठमुवासयज्झयणे ॥२१३॥(१) धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण आदिका जो परिमाण किया जाता है, वह पचम अणुव्रत जानना चाहिए, ऐसा उपासकाध्ययनमें कहा गया है ॥ २१३ ॥ गुणव्रत-वर्णन पुन्बुत्तर-दक्खिण-पच्छिमासु काऊण जोयणपमाणं । परदो गमणणियत्ती दिसि विदिसि गुणब्वयं पढमं ॥२१॥(२) पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशाओंमे योजनोंका प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशाओंमे गमन नही करना, यह प्रथम दिग्वत नामका गुणवत है ।। २१४ ॥ वय-भंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तस्थ णियमेण । कीरइ गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥२१५॥(३) जिस देशमें रहते हुए व्रत-भगका कारण उपस्थित हो, उस देशमे नियमसे जो गमननिवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशवत नामका गुणवत जानना चाहिए ॥ २१५ ॥ अय-दंड-पास-विक्कय कूड-तुलामाण कूरसत्ताणं । जं संगहो' ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं ।२१६॥(४) लोहेके शस्त्र तलवार, कुदाली वगैरहके, तथा दंडे और पाश (जाल) आदिके बेचने का त्याग करना, झूठी तराजू और कूट मान अर्थात् नापने-तोलने आदिके बांटोंको कम नही रखना, तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियोंका संग्रह नहीं करना, सो यह तीसरा अनर्थदण्ड त्याग नामका गुणव्रत जानना चाहिए ॥ २१६ ॥ शिक्षाव्रत-वर्णन जं परिमाणं कीरह मंडण-तबोल-गंध-पुष्फाणं । तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते ॥२१७॥(५) मंडन अर्थात शारीरिक शङ्गार, ताम्बल, गंध और पुष्पादिकका जो परिमाण किया जाता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्रमें भोगविरति नामका प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है ॥२१७॥ १ब, जाणि । २ ब. परो । ३ इ. झ. ब. विइय । ४ ब. संगहे । ५ इ. स. प तइयं, ब. तिइयं । (१) धनधान्यहिरययादिप्रमाणं यद्विधीयते । __ततोऽधिके च दातास्मिन् निवृत्तिः सोऽपरिग्रहः ॥१३७॥ (२) दिग्देशानर्थदण्डविर तिः स्याद् गुणवतम् । सा दिशाविरतियाँ स्यादिशानुगमनप्रमा ॥१४॥ (१) यन्त्र प्रतस्य भंगः स्याद्देशे तन्त्र प्रयत्नतः । गमनस्य निवृत्तियों सा देशविरतिर्मता ॥१४॥ (५) कूटमानतुला-पास-विष-शनादिकस्य च । क्रूरपाणिभृतां त्यागस्तत्ततीयं गुणवतम् ॥१४२॥ भोगस्य चोपभोगस्य संख्यानं पात्रसस्क्रिया । सल्लेखनेति शिक्षाख्यं व्रतमुक्तं चतुर्विधम् ॥१३॥ यः सकृद् भुज्यते भोगस्ताम्बूल कुसुमादिकम् । तस्य या क्रियते संख्या भोगसंख्यानमुच्यते ॥१४४॥-गुण श्राव.
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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