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________________ दर्शनप्रतिमा देवगतिमें छह मास आयुके शेष रह जानेपर वस्त्र और आभूषण मैले अर्थात् कान्तिरहित हो जाते हैं, तब वह अपना च्यवन-काल जानकर शोकसे और भी अधिक रोता है ॥ १९५॥ और कहता है कि हाय हाय, किस प्रकार अब मैं मनुष्य-लोकमे कृमि-कुल-भरित, अति दुर्गन्धित, पीप और खूनसे व्याप्त गर्भमे नौ मास रहूगा ? ॥ १९६ ॥ मै क्या करूं, कहां जाऊं, किससे कहूं, किसको प्रसन्न करू, किसके शरण जाऊं? यहां पर मेरा कोई भी ऐसा बन्धु नही है, जो यहांसे गिरते हुए मुझे बचा सके ॥ १९७ ॥ वज्रायुध, महात्मा, ऐरावत हाथीकी सवारीवाला और यावज्जीवन जिसकी सेवा की है, ऐसा देवोंका स्वामी इन्द्र भी मुझे यहां नही रख सकता है ॥ १९८ ॥ जइ मे होहिहि मरणं ता होजउ किंतु मे समुप्पत्ती । एगिदिएसु जाइजा णो मणुस्सेसु कइया वि ॥१९९॥ अहवा किं कुणइ पुराज्जियम्मि उदयागयम्मि कम्मम्मि । सक्को वि जदो ण तरइ अप्पाणं रक्खिडं काले ॥२०॥ यदि मेरा मरण हो, तो भले ही हो, किन्तु मेरी उत्पत्ति एकेन्द्रियोंमें होवे, पर मनुष्यों में तो कदाचित् भी नही होवे॥१९९॥ अथवा अब क्या किया जा सकता है, जब कि पूर्वोपार्जित कर्मके उदय आनेपर इन्द्र भी मरण-कालमें अपनी रक्षा करनेके लिए शक्त नही है ॥२०॥ एवं बहुप्पयारं सरणविरहिनो खरं विलवमाणो । एइंदिएसु जायइ मरिऊण तो णियाणेण ॥२०१॥ तत्थ वि अणंतकालं किलिस्समाणो सहेइ बहुदुक्खं । मिच्छत्तसंसियमई जीवो किं किं दुक्खं ण पाविज्जई ॥२०॥ पिच्छह दिव्वे भोए जीवो भोत्तण देवलोयम्मि । एइदिएसु जायइ धिगत्थु संसारवासस्स ॥२०॥ इस प्रकार शरण-रहित होकर वह देव अनेक प्रकारके करुण विलाप करता हुआ निदानके फलसे वहांसे मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है ॥ २०१॥ वहां पर भी अनन्त काल तक क्लेश पाता हुआ बहुत दुःखको सहन करता है। सच बात तो यह है कि मिथ्यात्वसे संसिक्त बुद्धिवाला जीव किस-किस दुःखको नही पाता है ॥ २०२॥ देखो, देवलोकमे दिव्य भोगोंको भोगकर यह जीव एकेन्द्रियोमें उत्पन्न होता है ऐसे संसार-वासको धिक्कार है।।२०३॥ एवं बहुप्पयारं दुक्खं संसार-सायरे घोरे । जीवो सरण-विहीणो विसणस्स फलेण पाउणइ ॥२०४॥ इस तरह अनेक प्रकारके दुखोंको घोर संसार-सागरमें यह जीव शरण-रहित होकर अकेला ही व्यसनके फलसे प्राप्त होता है ॥ २०४ ॥ दर्शनप्रतिमा *पंचुंबरसहियाइ परिहरेइ इय' जो सत्त विसणाइ। सम्मत्तविसुद्धमई सो दसणसावयो भणिो ॥२०५।। - - १ब, प्रतौ 'दुक्ख' इति पाठो नास्ति। २ म. पाविजा। प. पापिज। ३ प. पेच्छह । ४ ब, धिगस्थ ५ प. ध. प्रत्योः इय पदं गाथारम्भेऽस्ति । * उदुंबराणि पंचैव सप्त च व्यसनान्यपि । वर्जयेद्यः सः सागारो भवेद्दार्शनिकाह्वयः ॥११२॥-गुणश्रा०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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