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________________ मनुष्यगतिदुःख-वर्णन *इच्चेवमाइ बहुयं दुक्खं पाउणइ तिरियजोणीए। विसणस्स फलेण जदो वसणं परिवज्जए तम्हा ॥१२॥ इस प्रकार व्यसनके फलसे यह जीव तिर्यञ्च-योनिमे उपर्युक्त अनेक दुःख पाता है, इसलिए व्यसनका त्याग कर देना चाहिए ॥ १८२ ॥ मनुष्यगतिदुःख-वर्णन मणुयत्तें वि य जीवा दुक्खं पावंति बहुवियप्पेहिं । इटाणिडेसु सया वियोय-संयोयजं तिब्वं ॥१३॥ मनुष्यभवमें भी व्यसनके फलसे ये जीव सदैव बहुत प्रकारसे इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में वियोग-संयोगज तीव्र दुःख पाते हैं ॥ १८३ ॥ उप्पण्णपढमसमयम्हि कोई जणणीइ छंडिओ संतो। कारणवसेण इत्थं सीउगह-भुक्ख-तण्हाउरो मरइ ॥१८॥ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही कारणवशसे माताके द्वारा छोड़े गये कितने ही जीव इस प्रकार शीत, उष्ण, भूख और प्याससे पीड़ित होकर मर जाते हैं ॥ १८४ ॥ बालत्तणे वि जीवो माया-पियरेहि कोवि परिहीयो। उच्छिष्टं भक्खंतो जीवइ दुक्खेण परगेहे ॥१८५॥ बालकपनमें ही माता-पितासे रहित कोई जीव पराये घरमें जूठन खाता हुआ दुःखके साथ जीता है ॥ १८५ ॥ . पुव्वं दाणं दाऊण को वि सधणो जणस्स जहजोगं । पच्छा सो धणरहिओ ण लहइ कूरं पि जायंतो ॥१६॥ यदि कोई मनुष्य पूर्वभवमें मनुष्योंको यथायोग्य दान देकर इस भवमें धनवान् भी हुआ और पीछे (पापके उदयसे) धन-रहित हो गया, तो मांगनेपर खानेको कूर (भात) तक नहीं पाता है ॥ १८६ ॥ अपणो उ पावरोएण बाहिरो एयर-बज्झदेसम्मि । अच्छह सहायरहिओ ण लहइ सघरे वि चिट्ठ ॥१८७|| तिसो वि भुक्खिओ हं पुत्ता मे देहि पाणमसणं च । एवं कूवंतस्स विण कोइ वयणं च से देह ॥१८॥ तो रोय-सोयभरियो सब्वेसि सव्वहियाउ' दाऊण । दुक्खेण मरइ पच्छा धिगत्यु मणुयत्तणमसारं ॥१८॥ * इतःपूर्व स. ब. प्रत्योः इमे गाथेऽधिके उपलभ्येते तिरिएहिं खजमाणो दुहमणुस्सेहिं हम्ममाणो वि । सम्वत्थ वि संतट्ठो भयदुक्खं विसहदे भीमं ॥१॥ भएणोरयां खज्जता तिरिया पावति दारुणं दुक्ख । माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ राखेदि ॥२॥ तिर्यचोंके द्वारा खाया गया, दुष्ट शिकारी लोगोंके द्वारा मारा गया और सब ओरसे संत्रस्त होता हुआ भय-जनित भयकर दुःखको सहता है ॥ १॥ तिर्यंच परस्परमें एक दूसरेको खाते हुए दारुण दुःख पाते हैं। जिस योनिमें माता भी अपने पुत्रको खा लेती है, वहां दूसरा कौन रक्षा कर सकता है ॥२॥ स्वामिकार्ति० अनु, गा०११-१२ १ध. प. जाईए । २ म. ब. मणुयत्तेण । (मणुयत्तणे) ३ कुष्टरोगेोत्यर्थः। ४ ध. 'पभुक्खित्रों' ५ ब. देह । ६ (कूजंतस्स?) ७ ब. सवहियाउ । सर्वाहितान् इत्यर्थः ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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